भगवान महावीर और उनकी सर्वोदय दृष्टि

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*महावीर जयन्ती पर विशेष 10 अप्रैल
*भगवान महावीर और उनकी सर्वोदय दृष्टि
दुनियाँ के किसी भी धर्म में हिंसा की स्थान नहीं है फिर भी आज हिंसा का बोलबाला है। आज मानव जीवन के मूल्य क्षीण होते जा रहे हैं। रक्त की नदियां बह रही हैं। आज धर्म की ओट में अधर्म सक्रिय है।समस्याओं के घेरे में विश्व घिरा हुआ है, इसका मुख्य कारण है समस्या प्रति दृष्टिकोण की अपरिपक्वता तथा अस्वस्थता। यह विडम्बना है कि न तो पूर्व साधकों का अनुकरण करते हैं और न ही हम अपनी भूलो से कुछ सीखते है।निरन्तर हम जो भूलें कर चुके हैं उसी को दोहराते हैं।
*साधना की ऊँचाई*
भगवान महावीर ने साधना की ऊँचाइयों को छुआ तब उजालों के प्रति जन जन में विशेष अनुराग न था, प्रसुप्ति की गोद में स्थित अनेकानेक आत्माएँ अंधकार में भटक रही थीं। आज भी यन्त्रणा का वही दौर चल पड़ा है। लोग संत्रस्त है, अपने आगे का परिवेश भी दिखलाई नहीं पड़ता।
सीधे-साधे यह कहा जाये कि महावीर जयन्ती मनाना निरर्थक है तो इस कथन के पीछे कोई दुर्भाव नहीं है। केवल यह भाव है कि जब महावीर को अपने जीवन अपनाना नहीं है, उनके कालजयी सिद्धान्तों का परिपालन ही नहीं करना है तो सि यह लोक दिखावा भला क्या मूल्य रखता है?
*विकृति की अनुकृति*
जयन्ती के दिन विशाल आयोजनों में बड़े-बड़े मंचों से भगवान महावीर के जो कुछ भावना व्यक्त की जाती है, उससे तो यही लगता है कि ये लोग भगवान महावीर के प्रति सर्वात्मना समर्पित हैं। पर जो लगता है वह सच नहीं होता। जो प्रभु के दरबार में जितने अधिक विनत लगते हैं कहीं और उससे भी ज्यादा विकृत होते हैं। ऐसे में ये आयोजन वास्तविकता में उन्हीं विकृतियों की अनुभूत्तियाँ होते हैं।आज विश्व-भर में जितनी भी हिंसा है, परिग्रह है, असत्य है, लूटपाट है अब्रह्मचर्य है उसके पीछे मात्र एक ही कारण है और वह है प्रभु महावीर कीअवहेलना। जब हम किसी की बात नहीं मानना चाहते हैं, तो उसे पूजनीय बनाकर कहीं एक ओर स्थापित कर देते हैं और फिर उसी के नाम पर अपनी राजनीति की, स्वार्थ की रोटियाँ सेकते हैं।
महावीर के अनुपम सिद्धान्तों के कारण उस युग में मानव की करुण भावना जगी थी। वह अनेक सन्दर्भों में करुणाशील हो गया था परन्तु लगता है बाद में भयंकर अपरिमेय अवस्था से तालमेल नहीं बिठा सका। असीम उपलब्धियों का बोझ वहन नहीं कर सका। वह अशान्त तो हो गया पर उसे स्वीकारने के संकोच में बाहर मे वह यही दर्शाता रहा कि उसके बराबर कोई भी सक्षम नहीं है। उसी का यही छुपाव, दुराव हमारी आयोजना को कमजोर बनाता है
आज वैमनस्य प्रसार पा रहा है। वास्तव में वह मनुष्य के मन का अपना ही विकार है क्योंकि जिस विशुद्धता का वातावरण भगवान महावीर ने दिया था उसमें न कोई वर्ग था, न ही कोई भेद। भगवान महावीर ने प्राणीमात्र से मैत्री का स्वर उच्चारा था। वे पापी से नहीं पाप से घृणा करने की सीख देते थे। यह घृणा भी केवल उस सीमा तक थी जब तक पापी उस पाप के प्रति पश्चात्ताप की मुद्रा में न आ जाए, उससे निवृत्ति न पा ले।
क्रूरकर्मा अर्जुनमाली ने कभी जीवन में सोचा भी न होगा कि उसके जीवन में जो प्रतिकूलता आई है वह पूरी तरह से अनुकूल हो जायेगी, परन्तु जब सेठ सुदर्शन को उसने अभय मुद्रा में पाया तो वह भी उनके साथ हो गया। प्रभु महावीर ने उसे विलकुल सहज रूप में देखा और स्वीकारा। प्रभु के इस अनुग्रह से वह कृतकृत्य हो गया। उसने प्रभु की शरण में आने की भावना प्रकट की। क्योंकि अब उसका मन बिलकुल बदल चुका था। प्रभु ने उसकी क्रूरता तथा उसके परिणाम में विकृत हुए चेहरे की ओर नहीं देखा बल्कि उसके अन्तर में से उभरती आलोक किरण को देखा। प्रभु ने उसे अपने धर्म संघ में सम्मिलित किया और मुनि रूप में अर्जुनमाली ने अपूर्व साधना करके मोक्ष-मंजिल को प्राप्त किया
प्रगतिवादी में मापदंड सीमित
प्रभु महावीर का यही तो कथन है कि युद्ध में सहस्रों पर विजय पाने के बजाय आत्मा को विजय करो। स्वयं उन्होंने इस कथन को अपने जीवन में अपनाया। अपने को जीतकर उस स्थिति तक पहुँच गए जहाँ से उनके लिए पराजय अर्थहीन हो जाती है और उनकी इस अवस्था में जो भी उनके सन्निकट आया वह थोड़े से प्रयास में ही विजयी हो गया। उस स्थिति में इन्द्रभूति जैसा प्रकाण्ड व्यक्तित्व जब उन्हें चुनौती देने
आया तो स्तब्ध रह गया। वह उस व्यक्ति को भला क्या चुनौती देता जो हर प्रकार की चुनौती से ऊपर उठ चुका है। इन्द्रभूति इस अवबोध के बाद पराजित नहीं हुआ वरन् समर्पित हो गया। अपने आप में यह एक बहुत बड़ी बात है कि संघर्ष के उद्देश्य से आकर कोई बिना किसी संघर्ष के अपने आपको दिव्यता से युक्त कर ले
*सिद्धान्त की पालना*
विश्व के लोग अगर भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त अहिंसा सिद्धान्त को स्वीकारें तथा केवल स्वीकारे ही नहीं बल्कि उनका परिपालन भी करें तो यह जैन सिद्धान्तों व जैन परम्परा की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। उससे वे लोग तो अपनी यंत्रणा से मुक्ति पाएँगे ही परन्तु जैन दर्शन को भी महत्त्व मिलेगा और साथ ही अहिंसा धर्म के महान् प्रणेता भगवान महावीर को यथोचित सम्मान मिलेगा।
भगवान महावीर ने अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व दिया। उन्होंने कहा- अहिंसा धर्म है। यह कहकर उन्होंने अहिंसा को धर्म के समकक्ष नहीं रखा, वरन् अहिंसा में धर्म की छवि देखी। उनकी अहिंसा की सीख में अन्य सभी अच्छाइयाँ भी समाविष्ट हो गईं। अहिंसा में ही गहराई से देखने पर सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह की भी झाँकी नजर आ सकती है।
भगवान महावीर ने दृढ़ता के साथ कहा- असत्य को त्यागो अर्थात् दृढ़ता होगी तो सत्य उभरेगा ही और सत्य की अवस्थिति हुई तो दृढ़ता स्वतः ही जाग्रत हो जायेगी। भगवान महावीर का दृष्टिकोण पूर्णतः व्यावहारिक था। वे कभी भी असहज चिन्तन में नहीं रमे। उनकी अहिंसा में कायरता को स्थान नहीं था, उनके अनेकान्त में समन्वयवादी दृष्टि थी। वे अहिंसा को साहसी और अनेकान्तवादी को दृढ़ देखना चाहते थे।
भगवान महावीर की दृष्टि में मानव मात्र के प्रति कल्याण की भावना प्रमुख थी। जीव मात्र के कल्याण के लिए उन्होंने सत्य धर्म द्वारा मुक्ति पाने हेतु चतुर्विध संघ की स्थापना की। श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका इन स्वरूपों में ढलकर मानव एक सन्तुलित सृष्टि का निर्माण कर सकता है। यह भगवान महावीर की प्रबल अवधारणा थी। जो इन स्वरूपों से पृथक् रहे, वे भगवान की दृष्टि में दया के योग्य रहे। उनके मन में उनके प्रति हेय-भाव नहीं था। वे यह मानते थे कि कोई भी जीव अपने अन्तिम समय तक यह संभावना लिए रहता है कि वह अपने को सर्वरूपेण बदल दे। उनकी इस मान्यता के अनेक प्रमाण जैन वाङ्गमय में मिलते हैं।
भगवान महावीर के उज्ज्वल सिद्धान्तों में कहीं कोई भी न्यूनता नहीं थी। वे तो तौर पर पारदर्शी थे। एक जरा-सा भी विकार या छिद्र उसमें रह जाये यह संभावना ही नहीं है। विकार तो मानव की दुर्वद्धि है, उसने उनके अनेक कथनों को सुविधा के अनुसार मोड लिया अथवा उन्होंने उनके नाम का झण्डा हाथ में सा लिया और बदले में उनके सिद्धान्तों को अपने ही पैरों तले कुचल दिया। प्रस्तुत थत से यह बात स्पष्ट होगी कि किस प्रकार मनुष्य ने विकति को ओढकर अपने हे महावीर के वरदानों से विलग कर लिया। कोयले में अग्नि है पर वह गुप्त है। पोत अग्नि के सम्पर्क से वह जलता है, परन्तु पानी में भीगा कोयला सुलगता नहीं। उनी का अंश पृथक हो जाने पर ही वह सुलग सकता है।
हमारी आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा में परमात्मा के गुण भरे हुए हैं। जब हमारी निर्मल आत्मा में साधु-सन्तों का समागम होने पर ज्योति उभरती है तभी भीतर के गुण बाहर प्रकट हो पाते हैं।
जिस प्रकार भीगा हुआ कोयला सुलग नहीं पाता, उसी प्रकार कर्ममल से युक्त आत्मा परमात्म-पद नहीं पा सकती। जब तक कर्ममल भरा है यह सम्भव ही नहीं है। जिस प्रकार सूर्य के ताप से कोयले में रहा जल खत्म हो जाता है उसी प्रकार तप के जर से कर्ममल विनष्ट हो जाते हैं और परमात्म-पद पाने की राह खुल जाती है।
कांतिलाल मांडोत*

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