धर्म आराधना एवं आत्म विकास काअपूर्व अवसर चातुर्मास
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आज आषाढ़ शुक्लपक्ष चतुर्दशी से चातुर्मास का शुभारंभ
*धर्म आराधना एवं आत्म विकास काअपूर्व अवसर चातुर्मास*
चातुर्मास का मंगल प्रवेश होने जा रहा है।आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक पाद विहारी जैन श्रमण एक ही क्षेत्र में रहते है।यह जैन साधु साध्वियों की अपनी एक परम्परा है,उनका अपना कल्प है आपवादिक कारणों को छोड़ कर कोई भी साधु साध्वी चार माह के लिए निर्धारित स्थान से कही भी विहार नही करते है।साधु जब दीक्षित होते है तो उस समय पांच महाव्रतो को स्वीकार करते है।अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।इन पांच महाव्रतों में प्रथम महाव्रत अहिसा का है।मनसा, वाचा,कर्मणा जीवन पर्यन्त के लिए समय रूप से साधु अहिंसा का परिपालन करने के लिए संकल्पबद्ध होता है। अहिसा है तो अन्य महाव्रत भी है।अहिसा के अभाव में अन्य महाव्रत का पालन कठिन है।अहिसा मूल है।चातुर्मास विशेष प्रेरणा लेकर उपस्थित हुआ है।चातुर्मास की पावन प्रेरणाओं को हम हदयगम करके यदि जीवन को धर्म,अध्यात्म और परमार्थ की समुचित दिशा दे सके तो सचमुच गरिमामयी बात होगी।वैदिक व बौद्ध परम्परा में भी चार मास काल को चातुर्मास कहा गया है।वर्षावास का मतलब है वर्षाऋतु।श्रावण भाद्रपद का महीना वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहना।एक ही स्थान पर निवास करना।जैन आगमो में इसे वर्षावास कहा गया है।इस चातुर्मास के लिए परिव्राजक,ऋषि,श्रमण, निर्गथ एक स्थान पर निवास करते है।
आज भी चातुर्मास परम्परा चल रही है।वैदिक महात्मा आज भी वर्षावास में चातुर्मास करते है।बौद्ध भिक्षुओं में भी किसी चातुर्मास के चार मास एक स्थान पर ठहरने की परंपरा थी।परंतु अब भी वे दो मास में ही चातुर्मास समाप्त कर देते है।जैन परम्परा में आज भी चातुर्मास की यह परम्परा अक्षुण्ण चल रही है।आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने तक पादविहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर निवास करते है।जैन श्रमणों के लिए नवकल्पी विहार बताया है।
वैदिक ग्रंथो में वशिष्ठ ऋषि का कथन है कि चातुर्मास में चार महीने विष्णु भगवान समुद्र में जाकर शयन करते है।एसलिए यह चार मास का काल धर्माराधना योग धर्मश्रवण, भगवत पाठ व जप तप में बिताना चाहिए।वैदिक ग्रंथो के इस प्रतीकात्मक कथन पर विचार करें कि चार महीने तक देवता क्यो सोते है?क्या वास्तव में देवता सोते है? इस कथन के गंभीर भाव को समझे तो स्पष्ट होगा कि देवता सोने का मतलब है हमारी प्रवृत्तिया ,हमारी क्रियाएं सीमित हो जाये।सोना निवृति का सूचक है,जागना प्रवृति का सूचक है। हमारा पुरुषार्थ, हमारा पराक्रम जो बाह्यमुखी था वह चार महीने के लिए अंतर्मुखी बन जाये। बाहर से हम सोये रहे,भीतर से जागते रहे,बाहरी चेतना, संसार भावना कम हो,धर्म। भावना प्रबल हो यही मतलब है देवताओं के सोने का।
गीता में कहा है -या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।जिस रात में अन्य प्राणी सोते है उस रात में संयमी जागते है।भौतिक प्रवृतियों का सोना ही आध्यात्मिक प्रवृतियों का जागना है। जो प्राणी हिंसा,असत्य,चोरी,अब्रह्मचर्य कपट,क्रोध आदि प्रवृतियों में लगे हुए है उन लोगो को सोये रहना अच्छा है? जब वे सोते है तो बहुत जीवो को अभयदान मिलता है और संयमी,सदाचारी,दया परोपकार आदि प्रवृत्तियों में पुरुषार्थ करने वालो का जागना अच्छा है।वे जागते है तो अनेक जीवो का कल्याण होता है।
चातुर्मास में हिंसा का वर्जन,इंद्रियों का संयम और धर्माराधना करने का विधान संपूर्ण भारतीय संस्कृति में व्याप्त है।जैन और वैदिक दोनों ही परम्पराओ में चातुर्मास को धर्माराधना का काल माना गया है।
जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा है,जीवदया है।धर्म का मूल अहिंसा है।धर्म की आधार भूमि है।अहिंसा ,संयम और तप ।इन्ही की आराधना करने के लिए श्रमण ने गृहत्याग किया है और घर घर भिक्षा मांगने का व्रत ग्रहण किया है तो अहिंसा की आराधना,जीवो की विराधना से बचने के लिए ही चातुर्मास काल मे एक स्थान पर रहने का विधान है।चातुर्मास काल मे व्रत और प्रतिक्रमण पर विशेष बल दिया जाता है।व्रत श्रावक जीवन की आधारशिला है।धर्म का प्रवेश द्वार है।किंतु आजकल लोगों में एक भ्रांति या भय पैदा हो गया है कि वे व्रत नियम या प्रतिज्ञा के नाम से ही डर जाते है।जैन धर्म मे साधना का मूल आधार ही नियम है। नियम से ही साधना प्रारम्भ होती है।चातुर्मास में पर्युषण पर्व की पवित्र परम्परा कोई रूढ़ि या अंध मान्यता नही है।प्राकृतिक दृष्टि से धार्मिक जागरण के अनुकूल होने से ही इन दिनों का विशेष महत्व है ।सांसारिक वृत्तियों से दूर रहकर अधीक से अधिक अहिंसा,सत्य,ब्रह्मचर्य, तप,दान ,स्वाध्याय और आत्मचिंतन आदि की वृत्तियों में रमण करना है।
कांतिलाल मांडोत
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