हमे धर्म की शक्ति जगानी है तो मन को अतिक्रमण के बजाय प्रतिक्रमण की और ले जाना है-जिनेन्द्रमुनि मसा*
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*हमे धर्म की शक्ति जगानी है तो मन को अतिक्रमण के बजाय प्रतिक्रमण की और ले जाना है-जिनेन्द्रमुनि मसा*
कांतिलाल मांडोत
गोगुन्दा 2 दिसम्बर
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ सौभाग्य तीर्थधाम कड़िया के स्थानक भवन में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा किसत्य कभी मैला नही होता,वह तो सदैव समुज्ज्वल बना रहता है।जिस वाणी में सत्य,त्याग और संयम की आत्मा की आत्मा बोल रही है।वही वाणी सच्ची वाणी कहलाने की अधिकारिणी है।जिसमे तप त्याग और चिंतन मनन की धारा प्रवाहित नही होती,वह वाणी जनकल्याण कारी कभी नही हो सकती।वह तो केवल मुख से किया गया प्रलाप मात्र है।हमारा शरीर तभी तक हलचल में रहेगा अथवा इसे हम जीवित कह सकेंगे,जब तक इसमें आत्मा है।आत्मा का अभाव होने पर यह मुर्दा या निर्जीव कहलायेगा।मुर्दे को कौन अपने पास रखना चाहता है।मुर्दे स्वयं नही चल सकते।जिस वाणी में तेज नही है,रस नही है वह वाणी भी मुर्दा ही है।वैसी वाणी को मनुष्य कभी नही ढोएगा।जिनवाणी जीवित वाणी है।ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों द्वारा हमें पुष्ट किया गया है।आज हमारी जिनवाणी प्राचीन होकर भी नवीन भावो को संजोए हुए है।युगानुरूप धर्म का सही और सच्चा विश्लेषण इसमें समाया हुआ है।संत ने कहा हम मनुष्य है।हमे वास्तविक धर्म की और आगे बढ़ना है।धर्म हमे भौतिक पदार्थो की और नही बढ़ाता, वह हमें पाप करने हेतु प्रेरित नही करता,वह तो सिखाता है पवित्रता,उच्चता,संयम और ज्ञान की महत्ता।मुनि ने कहा धर्म पथ भ्रमित के लिए मार्गदर्शक होता है।धर्म का तो नाम ही मंगलकारी है।जैन संत ने कहा धर्म उत्कृष्ट मंगल है।अब हमारा दायित्व है कि हम उसे मंगल ही बनाये रखे।उसे अमंगल की और न जाने दे,अगर ऐसा होता है तो उसमें धर्म का नही ,अपना ही दोष है।महाश्रमण ने कहा संयम आत्मा की निधि है और भौतिक पदार्थ सभी बाहर के साधन है।आत्मा का चमकना संयम का चमकना है।जहाँ संयम चमकेगा,वहां समाज भी निश्चित रूप से चमकेगा।संयम कोई सहज में प्राप्त होने वाली शक्ति नही है।हमे धर्म की शक्ति जगानी है तो मन को अतिक्रमण के बजाय प्रतिक्रमण की और ले जाना है।मुनि ने कहा आज हम धर्म को गौण कर रहे है। न हमारे विचारों में संयम है,न हमारी भावना में संयम है।हम धर्म का बाह्य स्वरूप देख रहे है।उसकी गहराई की और हमने ध्यान नही दिया।जबकि आत्म कल्याण के लिए संयम तप त्याग से जीवन को सजाने व खिलाने की आवश्यकता है।
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