जो राम से सलंघ्न है,वह कभी भी कही भी पराजित नही होता*

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*जो राम से सलंघ्न है,वह कभी भी कही भी पराजित नही होता*
आज राम नवमी है। राम जन-जन के आराध्य ईश हैं। राम का नाम आते ही मन श्रद्धाभिभूत हो उठता है। राम को हुए कई सहस्राब्दियों गुजर चुकी हैं, पर आज भी राम का पावित्र नाम हर एक के मन मन्दिर में समाया हुआ है। एक परिवार के बीच में भी एक व्यक्ति पूरी तरह से स्नेह और सम्मान का केन्द्र नहीं बन पाता, जबकि राम सर्वत्र सभी के लिए पूजनीय हैं। इसके पीछे कई कारण हैं।यह संसार संसरणशील है। जन्म और मृत्यु का जो प्रवाह है, वह तीव्रता से गतिमान है। प्रतिपल और प्रतिक्षाण संसार में कई जन्म लेते हैं और कई काल के गाल में समाहित हो जाते हैं। किसको अवकाश है, जो यहाँ जन्म लेने वालों और मरने वालों को याद करें? याद उन्हीं को किया जाता है, जिन्होंने जीवन को, जीवन के ढंग से जिया है। प्रेरणाएँ उन्हीं से प्राप्त होती है, जिन्होंने स्व और पर हित को सम्यक् प्रकार से संपादित किया है।राम के पवित्र जीवन पर हम दृष्टिपात करते हैं तो लगता है कि राम का व्यक्तित्व और कृतित्व सचमुच अद्भुत है। वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में राम के आदशों का अनुगमन करके सुखों को विस्तार दिया जा सकता है। मैंने राम के जीवन का गहराई के साथ अध्ययन, अनुशीलन किया है। मुझे लगा, राम, राम ही थे। आज कोई ऐसा महामानव दिखाई नहीं देता, जिसे राम के बराबर खड़ा किया जा सके, क्योंकि वे अनुपमेय हैं। उनका अनुकरण वर्तमान परिस्थितियों में नितांत आवश्यक है
*सब नाम की महत्ता*
राम का नाम अपने में अत्यंत प्रभावशाली है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने राम की महत्ता का संगान करते हुए बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति की है-
*राम नाम मणि दीप धरू, जीह देहरी द्वार । ‘तुलसी’ भीतर बाहिरह, जो चाहसि उजियार*॥
हमारी चेतना अथवा आत्मसत्ता ही ‘राम’ है। उपर्युक्त दोहे में राम नाम को मणिदीप कहा गया है। मणिदीप हवा तो क्या आँधी-तूफान में भी नहीं बुझता। इसके प्रकाश में पतंगे भी जलकर नष्ट नहीं होते। ‘देहरी द्वार’ के दीपक की विशेषता भी देखें। देहरी द्वार पर रखा दीपक घर के भीतर और बाहर दोनों ओर के अंधकार का हरण करता है। इसी तरह नाम जापक के भीतर छिपी दीनता का नाश होगा, अन्दर आनन्द की सतत अनुभूति होगी और साधक के बाहरी जीवन की मलीनता मिटेगी, समृद्धि आयेगी, अर्थात् भीतर बाहर उजाला रहेगा।
राम के नाम में केवल वो अक्षर हैं। ‘रा’ और ‘म’। कवि मनीषी ने इस संबंध में जो कुछ अभिव्यक्त किया है, उसे मैंने पढ़ा, समझा और चिन्तन किया तो में आनन्द विभोर हुए बिना नहीं रह सका। देखिये, कितनी गहरी बात इस दोहे के माध्यम से कही गई है-
*‘रा’ अक्षर के उच्चरत, निकसत सभी विकार । पुनरि प्रवेश न कर सके, ‘म’ के लगे किवाड़* ।।
श्रद्धा और भक्ति के साथ जब व्यक्ति अपने मुँह से ‘रा’ अक्षर का उधारण करता है तो ‘रा’ के उच्चारण के समय बोलने वाले का मुँह खुलता है और मुँह खुलने के साथ भीतर में रहे हुए पापों का सारा कचरा बाहर निकल जाता है तथा ‘म’ बोलते ही जब होठ बन्द होते हैं तो ‘म’ के किवाड़ लग जाने से बाहर निकले हुए पाप भीतर में पुनः प्रविष्ट नहीं हो पाते। इससे हम अनुमान लगा सकते है कि राम के नाम की महत्ता कितनी है।राम को मन में उतारें
राम के नाम का स्मरण करके अतीत में अनेकों ने अपने जीवन में सिद्धिप्राप्त की है। वर्तमान में ऐसे सैंकडों उदाहरण है। बात यह है कि आपकी स्वयं को अनुभूति इस दृष्टि से जीवंतता ग्रहण कर ले, अतः आप स्वयं राम से श्रद्धापूर्वक जुड़िये । केवल बुद्धि से आप इस तथ्य को नहीं समझ सकते, इसके लिए श्रद्धा की आवश्यकता है। जैनागमों में श्रद्धा का महत्वपूर्ण स्थान है। श्रद्धा से जुड़कर ही व्यक्ति अपने जीवन में विशिष्ट प्रतीति कर पाता है। चमत्कार दरअसल श्रद्धेय में नहीं, अपितु श्रद्धा में होता है। भगवान महावीर का कथन है इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन सभी को सुख अनुकूल है एवं दुःख प्रतिकूल। कोई भी इस संसार में दुःखों की आकांक्षा नहीं करता। संसार में जितनी भी भाग-दौड़ चल रही है, वह सुख को प्राप्त करने के लिए ही चल रही है। पर क्या कभी, आप सोचते हैं कि सुख की प्राप्ति जिन साधनों से होती है, हम उन साधनों से जुड़ रहे हैं या दुःखों के हेतुओं से ही सम्बन्धित बन रहे हैं
*दुख में भी परम आनन्द की अनुभूति*
हमारे जीवन में जब भी प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो हम घबरा जाते हैं। दुखी होकर परेशान हो जाते हैं। यदि हम सर्वांश में सुखी होना चाहते हैं तो राम की उस स्थिति से जुड़े, जब उन्होंने दुख की प्रतिकूल परिस्थिति में भी परम आनन्द की अनुभूति की थी। राम को राजगद्दी मिलनी थी। लेकिन रातभर में पाँसा पलट गया। प्रातःकाल होते ही चौदह वर्ष के वनवास की आज्ञा मिली। ऐसी विषम और प्रतिकूल परिस्थिति में आज का कोई बेटा होता तो हार्टफेल हो जाता। अधिक नहीं तो पिता और भाइयों से विद्रोह तो संभव ही था। कितनों ने ऐसा किया भी है। कंस, कूणिक और औरंगजेब का इतिहास आपके सामने है। लेकिन वनवास की सूचना पाकर तो राम आनन्दविभोर हो गये। वे सोचने लगे प्राण प्यारे भाई भरत राजा बनेंगे। वन में ऋषियों का मिलन होगा। मुझसे ज्यादा भाग्यशाली आज कौन है? ऐसे में भी मैं वन को न जाऊँ तो मेरी गिनती मूखों में होगी। अयोध्या का राज राम ने बटाऊ की तरह त्याग दिया। बटाऊ कहते हैं, पथिक या राहगीर को। राहगीर को मार्ग में पड़ाव मिलते हैं, कुछ व्यक्ति भी मिलते हैं।
राहगीर या बटाऊ को मार्ग के व्यक्ति और पड़ावों के स्थान को छोड़ते समय किंचित् भी दुख नहीं होता। राम बाप का राज्य ‘बटाऊ की नाई’ त्याग कर वन को चले गये। आप भी संसार के भौतिक सुखों और व्यक्तियों को राम की तरह अनासक्त भाव से मानें तो आपके जीवन में भी रामत्व उतर आयेगा और दुनिया की कोई भी परिस्थिति आपको विचलित नहीं कर पायेगी।
याद रखिये, दुःखों का संसार जिन हेतुओं से अभिवृद्धि पाता है, उन हेतुओं को पुष्ट करके कोई कभी भी सुखी नहीं बन सकेगा । भौतिकता का प्रभाव व्यक्ति की अन्तर चेतना पर इतना गहरा स्थापित हो चुका है कि उसकी आध्यात्मिक सोच ही एक तरह से लुप्त हो चुकी है। यूँ कहै तो भी अतिशयोक्ति की बात नहीं होगी कि आज व्यक्ति के अन्तर लोचन ही बंद से हैं। बाहरी चमक-दमक और आकर्षण ही उसे प्रिय लगते हैं। रात-दिन पापों और प्रपंचों का ही चिन्तन चलता रहता है। ऐसी स्थिति में जीवन के उपवन में सुख और शांति के सुमन खिलें तो कैसे खिलें? रेत को पेल कर तेल नहीं मिल सकता। पानी का बिलौना करके नवनीत प्राप्त करने की परिकल्पना मूल में ही हास्यास्पद है।
भौतिक दृष्टि से इस संसार में कोई कितनी ही गति-प्रगति क्यों न कर ले, जीवन में जब तक अध्यात्म का समावेश नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति अन्तर-बाह्य तनावों से मुक्त नहीं बन सकता। प्रभु स्मरण, धर्म साधना एवं परमार्थ मूलक प्रवृत्तियों की आराधना जीवन में अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
आराम अगर चाहे, आ राम की तरफ । फंदे में फँसा चाहे, जा वाम की तरफ ॥
कथन इतना सचेष्ट और स्पष्ट है कि विश्लेषण की कोई आर्वश्कता नहीं है। आप कथन के आशय को ठीक तरह से समझ चुके हैं। आराम के लिए हर स्थिति में राम से जुड़ना अनिवार्य है। नाम, दाम, काम और चाम से बहुत जुड़े हैं, इस जुड़न से तनाव ही तो बढ़े हैं। अब थोड़ा अपने दृष्टिकोण को बदल दीजिये। दृष्टि जब बदलती है तो सृष्टि सहज रूप से बदल जाती है। जीवन की दिशा को बदल दीजिये, दिशा परिवर्तित होते ही दशा स्वतः परिवर्तित हो जाती है।
‘राम’ से संलग्नता जीवन की सार्थकता और सफलता है। जो राम से संलग्न है, वह कभी भी, कहीं भी पराजित नहीं होता। राम उत्साह एवं प्रामाणिकता का प्रतीक है। कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को करते हुए यदि बार-बार असफल होता है तो एक बात उसे प्रायः कही जाती है-अरे ! यह भी क्या, तुम इस तरह बार-बार असफल कैसे होते हो, क्या तुम्हारे भीतर राम नहीं है। अभिप्राय स्पष्ट है, सफल होने के लिए भीतर में राम, अर्थात् धर्म, धैर्य, उत्साह, साहस और स्फूर्ति का होना नितांत जरूरी है। किसी भी व्यक्ति के द्वारा कोई भी अकरणीय कार्य हो जाता है तो उसे अक्सर कहा जाता है। इस व्यक्ति के भीतर का राम ही निकल गया। बात स्पष्ट है, भीतर में यदि राम है तो कोई, कभी भी अकरणीय नहीं करेगा।
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में बैठा। एक राम का जगत पसारा, एक राम दुनिया से न्यारा ॥
राम का महत्त्व अद्भुत है। राम का अभिप्राय आत्मा से भी है। जगत में जो कुछ भी वैशिष्ठ्य है, वह आत्माराम के कारण ही तो है। जैन दर्शन में नव तत्त्वों पर गंभीरता और गहराई के साथ विचार चिंतन किया गया है। नव तत्त्वों में सर्वप्रथम स्थान ‘जीव’
को है। आत्माराम का सतत ध्यान जीवन का सत्यात सुनिश्चित है। रामायण का वह प्रसंग अत्यंत विभूत है। इसपर पार करते समय सेतु बंध की दृष्टि से जब पत्थरों का उपयोग किया जाने लगा तो जिन पत्थरों पर राम अंकित था वे तिर गए एवं उसे सत्र से पृथक या सुन्स थे, वे डूब गए।दुःखों के पारावार से यदि तिरना है, पार होता है तो आप हार्दिकता पूर्वक राम से जुड़िये। राम के जीवन का एक-एक प्रसंग प्रेरणास्पद है। राम के जीवत्त की वित्तम्रता, सरलता, सूझबूझ, जवारता और सद्गुण निक्षा आदि के लिए जितना भी कहा जाए, कम है। एम के नाम पर मंदिरों एवं अन्य भक्तों का निर्माण ही पर्याप्त नहीं है, आज आवश्यकता इस बात की है कि इस राम के जीवत्त से कुछ विशेष प्रेरणाएँ ग्रहण करें एवं अपने जीवन को राममय बनाने का प्रयास करें। मन में राम को प्रतिस्थापित कीजिये। सम की सदि प्रतिस्थापना हम अपने मन मंदिर से कर देते हैं तो फिर हमारे सन्न में विकृतियाँ एक पल के लिए भी नहीं ठहर पायेंगी। कहा भी है-
जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहीं राम । ‘तुलसी’ दोलों त्वा रहें, रवि-रजनी इक ठाम ।।
*वर्तमान की विपत्रता*
आज के भौतिकता प्रधान युग में जो संवेदन शून्य स्थितियाँ देखने में आ रही है, वे अत्यंत भयावह है। लगता है आज के युग में राम के नाम की चर्चा मात्र रह गई है। जीवन की जो हमारी अपनी चर्चा है, उसमें राम नहीं वत् है। यही एक कारण है कि आज चारों ओर संघर्षों एवं स्वार्थों का साम्राज्य है।राम ने अपने माता-पिता के प्रति, गुरुजनों के प्रति हर स्थिति में पूज्य भाव को बनाए रखा। उनकी जो विनम्रता थी, वह अभूतपूर्व थी, पिता के इंचित मात्र से बिना किसी विवाद के वे चौदह वर्ष के लिए वनवास की
बल पड़े। आज के राम के द्वारा अपने माता-पिता के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है, वह किससे छिपा हुआ है? कहाँ राम और भरत का प्रेम और कहाँ आज का भ्रातृत्व? कौशल्या और सीता की पारस्परिकता और आज की सास और बहू की कहानियों से आप अपरिचित नहीं हैं। घर-घर में मंथरा के दुश्चक्र सक्रिय हैं। कदम-कदम पर मर्यादाओं का उल्लंघन, अहर्निश स्वार्थों के चक्र, अनुशासनहीनता और चारित्रिक पतन का जो दौर आज चल रहा है, उससे हर एक पीड़ित है।
*कांतिलाल मांडोत*

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