जहाँ समत्व है,वही व्यवस्था और संतुलन है-जिनेन्द्रमुनि मसा*
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*जहाँ समत्व है,वही व्यवस्था और संतुलन है-जिनेन्द्रमुनि मसा*
कांतिलाल मांडोत
गोगुन्दा 20 अक्टूबर
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ उमरणा के स्थानक भवन में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि सामयिक जैन परम्परा का एक आवश्यक अंग है।सामायिक साधना सुख प्राप्ति का मुख्य साधन है।सामायिक को यदि हम जैन साधना परम्परा का प्राणतत्त्व भी कह दे तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी।सामायिक साधना साधु और श्रावक दोनों के लिए अनिवार्य है।साधु की सामायिक जीवन पर्यंत होती है जबकि श्रावक की सामायिक साधना निर्धारित समय के लिए होती है।दोनों साधना पथ के पथिक है अथवा एक ही साध्य लक्ष्य के साधक है।एक महाव्रती है तो एक अनुवर्ती।समत्व दोनों के जीवन मे अपेक्षित है।समत्व के अभाव में की जाने वाली क्रियाएं निष्प्राण है।संत ने कहा सामायिक के पाने के लिए जैन दर्शन में सामायिक का प्रावधान है ।सामायिक जैनत्व को प्रकट करने का साधन है।सामायिक की साधना अनिवार्य रूप से प्रतिदिन होनी चाहिए।हर पल,हर क्षण जीवन को उत्स की ओर अग्रसर करने में अड़तालीस मिनिट का यह उपक्रम अत्युत्तम है।मुनि ने कहा सामायिक साधना के ढंग से की जाए, केवल औपचारिक ताओ का निर्वाह अथवा सामायिक की खाना पूर्ति मात्र अर्थहीन है।सामायिक से पूरे जीवन का रूपांतरण करने में सहायता मिलती है।सामायिक से जुड़े हर व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन समतामय हो जाता है।ऐसा समतामय जीवन स्वयं के लिए ही नही,दुसरो के लिए भी वरदान स्वरूप होता है।भावपूर्वक की गई सामायिक ही जीवन का काया कल्प कर देती है।मुनि ने कहा आप सुन रहे है न?एक सामायिक का मूल्य क्या है।?सामायिक का मूल्य अनूपम है।जिसके जीवन मे सामायिक का,समत्व का अवतरण हो गया है,आप मानकर चलिए उसके अंतर बाह्य कष्टो का अंत हो गया।सामायिक को समता के पवित्र भाव को जीवन मे सतत पुष्ट कीजिये।आप फिर स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारा जीवन अवर्णीनीय सुखो से समृद्ध बन गया है।श्रेणिक ने भगवान महावीर की बात सुनी तो वह चकराए बिना नही रह सका।मुनि ने कहा जो विधिपूर्वक सामायिक सम्पन्न करता है,वह अध्यात्म के आचरण की गहराई में उतर जाता है।सामायिक मानव को मानवता से जोड़ती है।सामायिक से संकीर्णताओं का अवसान होता है।सामायिक करने से सहिष्णुता में अभिवृद्धि होती है।जो सामायिक से जुड़ा है वह अपनी आत्मा के स्वरूप को समझता है।सामायिक से अंतर विवेक जागृत होता है।सामायिक द्वारा अशुभ से निवृति एवं शुभ में प्रवृति सुनिश्चित है।प्रवीण मुनि ने कहा अपनी सुख सुविधा एवं वृद्धि के लिए किसी को पीड़ा पहुंचाना, कष्ट देना घोर दुष्कर्म है।रितेश मुनि ने कहा मानव के विषय मे धर्म शास्त्रों के स्वर बहुत उच्च कोटि के है।मानव को विश्व का श्रेष्ठतम प्राणी तो स्वीकार किया ही है,मानव को अपार क्षमता का भंडार बताया गया है।प्रभातमुनि ने कहा मानव यदि स्वयं के जीवन पर दृष्टिपात करे तो उसके अनुभव ही इतने अधिक और विविधता लिये हुए है कि उससे ही बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है।
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