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एक को मिटाकर दूसरे का निर्माण कभी भी तर्क संगत नही है*

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*एक को मिटाकर दूसरे का निर्माण कभी भी तर्क संगत नही है*
मानव पशु-पक्षी प्रत्येक प्राणी में संग्रह की प्रवृत्ति होती है। चींटी और मधुमक्खी का संग्रह प्रसिद्ध ही है। लेकिन मनुष्य में यह प्रवृत्ति पशु-पक्षियों से कहीं ज्यादा है। उसकी इस प्रवृत्ति ने तो आज सम्पूर्ण मानवता को ही तोड़कर रख दिया है। हर आदमी सोचता है कि मेरे पास यदि इतना धन हो जायेगा बस, तब मैं शान्ति से जी सकूँगा। फिर मुझे किसी चीज की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। आज यह दुनियाँ 21वी शताब्दी की ओर अग्रसर है।
वैज्ञानिक संसाधनों ने मनुष्य के जीवन की प्रक्रिया को बड़ा जटिल बना दिया है। आदमी का सोच बड़ा संकुचित हो गया है। परिग्रह के प्रति उसका दीवानापन शांति के स्थान पर अशान्ति उत्पन्न कर रहा है। एक ओर जहाँ दार्शनिक अपने उद्दात शान्ति विचारों के माध्यम से विश्वशान्ति के सपने संजो रहे हैं, वहीं राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक अपने ही ढंग से शान्ति का हल ढूँढ़ने में लगे हुए हैं। आज स्थिति ऐसी हो गई है कि “ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया।
सुख-शान्ति के लिए प्रयास चल रहे हैं। मगर, जब मूल में ही भूल है तो शान्ति आयेगी कहाँ से? इस दुनियाँ में राजा-महाराजा, सम्राट्, बादशाह, नवाब न जाने कौन-कौन आये, अपने राज्य का विस्तार किया अन्न, धन-सम्पदा का अथाह संग्रह किया, फिर भी वे जीवन में शान्ति नहीं पा सके। बीसवीं शताब्दी में प्रवेश करते-करते दुनियाँ दो भागों में विभक्त हो गई। राज्य की व्यवस्था दो तरह से बन गई-एक व्यवस्था पूँजीवादी कहलाई, वहीं दूसरी साम्यवादी। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में लोगों को लगा कि सुखी हम इनसे भी नहीं हुए हैं। शान्ति के बजाय अशान्ति ही बढ़ी है, तो मध्यम मार्ग वाली समाजवाद वाली व्यवस्था लेकर आये, मगर फिर भी आदमी दुःखी ही रहा। कितने ही वाद-विवादों में आदमी उलझकर रह गया। जन-सामान्य को क्या लेना वादों से, उसे तो दो समय पेट भरने को रोटी चाहिए।
आज किसको फुर्सत है इन वादों के भँवर जाल में फँसने की? इन वादों ने विश्व की शान्ति को नष्ट किया है। साम्यवाद के गुब्बारे की हवा निकलने लगी। पूँजीवादी व्यवस्था दुनियाँ पर हावी हो रही है। आज कई देश धनवान हो रहे। मगर वहाँ के निवासियों का जीवन-स्तर गिर रहा है। हम बाहर क्यों जाए, अपने देश में देखें। भारत के निवासी अपने ही भाई-बहिन हैं। मगर यहाँ की विषमता की खाई कम होने के बजाय दिनों-दिन बढ़ रही है। रोजी-रोटी के साधनों पर एक वर्ग का अधिपत्य हो गया है. वहीं दूसरी ओर जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा निर्धनता में जीवन व्यतीत कर रहा है।यहाँ एक वर्ग शोषक है, धनिक है तो दूसरा शोषित है, श्रमिक है। यह वर्गवाद कब भीषण ज्वाला बनकर भभक उठेगा, कहा नहीं जा सकता। यह ज्वाला शान्त है तो इसलिए कि यहाँ के लोगों में धर्म के संस्कार हैं। चरित्र और नीति के संस्कार है। इसीलिए दूसरे के हक को छीनकर खाने की भावना अभी यहाँ के लोगो में उत्पन्न नहीं हुई है। आम भारतीय के मन में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर की प्रवाहित हो रही है। कहीं ऐसा न हो कि वाणी का प्रवाह रुक जाय, अवरुद्ध हो जाए। इसके लिए मेरा धन कुबेरों से आग्रह है कि वे अट्टालिकाओं को देख पश्चात् झोंपड़ियों को भी देखें। अपने ठहाकों के पश्चात् गरीबों के रुदन को भी सुने। यह मार्क्सवाद, यह फ्रायडवाद कभी भी मानव मन को शान्ति नहीं दे पायेंगे।एक को मिटाकर दूसरे का निर्माण कभी तर्कसंगत नही है।हमने सदियों पहले जिओ और जीने दो का नारा लगाया तो हजारो वर्षो तक विश्व मे शांति बनी रही।

                      

                         कांतिलाल मांडोत*

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