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ईर्ष्या और लालच सुख को विष में बदल देते है-शास्वत सागरजी मसा

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ईर्ष्या और लालच सुख को विष में बदल देते है-शास्वत सागरजी मसा
प्रदीप बंगड़ीवाला
गोगुन्दा 15 जुलाई
पर्वत पाटिया बाड़मेर जैन श्री संघ एव सर्वमंगलमय वर्षावास समिति कुशल दर्शन दादावाड़ी चातुर्मास में खरतरगच्छाचार्य संयम सारथी शासन प्रभावक श्री जिन पीयूषसागर जी म.सा.के शिष्य श्री श्रास्वत सागरजी म सा .आज प्रवचन में कहा की संसारिक सुख की क्षणभंगुरता एवं आत्मिक सुख की खोज के विषय पर जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई को उजागर करते हुए कहा मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है, फिर भी आज का मानव वास्तविक सुख से वंचित है। संसाधन होते हुए भी शांति नहीं, सुविधाएँ होते हुए भी तृप्ति नहीं।
उन्होंने स्पष्ट किया कि आज व्यक्ति पुण्य के बल से उत्तम शरीर, श्रेष्ठ जन्म और भौतिक संसाधन प्राप्त कर लेता है, लेकिन फिर भी वह उन्हें भोग नहीं पाता।क्यों? क्योंकि उसका शरीर रोगग्रस्त हो गया है, मन चिंता और ईर्ष्या में उलझा हुआ है और आत्मा भटकाव में खो गई है।उदाहरण देते हुए फरमाया की व्यक्ति के मिठाई सामने है, लेकिन अगर उसे मधुमेह है तो वह उसे खा नहीं सकता।  ए.सी. कूलर फ्रिज सब सुविधा है, लेकिन उससे एलर्जी या जुकाम हो जाए तो वही सुख पीड़ा बन जाता है। पेट खराब हो तो छप्पन भोग भी अरुचिकर हो जाते हैं। साथ ही आगे एक अत्यंत सरल परंतु मार्मिक उदाहरण देते हुए कहादो व्यक्ति साथ कुल्फी खा रहे हैं, जैसे ही एक व्यक्ति की कुल्फी खत्म होती है और दूसरा धीरे-धीरे खा रहा होता है, तो पहले के मन में ईर्ष्या जन्म लेती है ।इसकी कुल्फी अभी तक कैसे चल रही? उस क्षण तात्कालिक सुख ‘ईर्ष्या युक्त दुख’ में बदल जाता है।यही संसार का सत्य है ।
जहाँ एक कुल्फी भी सुख-दुख का कारण बन सकती है, वहाँ जीवन में बड़े स्तर पर क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे दोष अनगिनत दुखों को जन्म देते हैं।
शास्त्रकारों और भगवंतों ने स्पष्ट कहा है।शारीरिक सुख कभी स्थायी नहीं होता। यह परिस्थिति और शरीर पर निर्भर है, और इसलिए पराधीन भी है।”
पुण्य से संसाधन मिल सकते हैं, अवसर मिल सकते हैं, लेकिन भोग की क्षमता तभी आती है जब शरीर स्वस्थ, मन शांत और आत्मा सजग संसार का सुख अपूर्ण, अस्थायी और सीमित है।
सुख की खोज अगर केवल बाहरी साधनों में हो, तो वह अंततः दुख में परिवर्तित हो सकती है। संसारिक सुख उपस्थिति के बाद भी अनभोग्य हो सकते हैं  तुलना, ईर्ष्या और लालच सुख को विष में बदल देते हैं।मुनि ने कहा  सच्चा सुख आत्मा में है, जो संयम और साधना से प्राप्त होता है
 आत्मिक सुख न समय से मिटता है, न किसी से छिनता है
   संयम, समत्व और साधना ही आत्मिक आनंद के द्वार हैं
“सुख की तलाश बाहर मत करो। आत्मा के भीतर उतरिए
जहाँ संयम, श्रद्धा और साधना का संग है, वहीं सच्चा, शाश्वत और निर्विकार सुख है।
संसारिक सुखों की दौड़ में आत्मिक आनंद को मत खोओ ।
प.पू. श्री समर्पित सागर जी म .सा. ने व्यक्ति के जीवन को गंभीरता आत्मविश्वास और साधना का रहस्य को बताते हुए प्रवचन में कहा की व्यक्ति में लघुता (humility) और लघिता ग्रंथि (inferiority complex) इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है।लघुता एक सकारात्मक गुण है, जो व्यक्ति को विनम्रता और सेवा की भावना से भरती है और उसे विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाती है।

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