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नवरात्रि में आध्यत्मिक और वैज्ञानिक तादात्म्य*

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नवरात्रि पर विशेष

*नवरात्रि में आध्यत्मिक और वैज्ञानिक तादात्म्य*
अश्विनी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक शक्ति की देवी भगवती दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है।श्री मार्कण्डेय पुराण में चर्चित गाथा के अनुसार वर्ष के चार हिस्सों में दुर्गा के स्वरूपों की उपासना की जाती है। क्रमशः माघ मास की शुक्ल पक्ष को प्रथम तिथि से नवमी तिथि तक महाकाली के रूप में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष को प्रथम से नवमी तिथि तक महालक्ष्मी के रूप में आश्विन मास शुक्ल पक्ष को प्रथम से नवमी तिथि तक महादुर्गा के रूप में शक्ति पूजन किया जाता है।
देवी भागवत में अनेक स्थानों पर दुर्गा का उल्लेख मिलता है तथा इनको सर्वश्रेष्ठ देवी का ओहदा दिया जाता है। मूल प्रकृति देवी के खास रूपों में लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा के साथ प्रथम नाम गणेशजननी दुर्गा का ही है, इनका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह शिव स्वरूपा और शिव की प्रेयसी भार्या है। साथ ही साथ ये नारायणी ‘विष्णुमाया’ और ‘पूर्णब्रह्मस्वररूपिणी नाम से प्रसिद्ध है।देवमुनि मानुष सभी को उपासना और अवस्था करने वाली है। दुर्गा को पूजा-अर्चन शक्ति की आराधना है। राम ने भी युद्ध के पहले शक्ति की उपासना की थी ।शिव तो शक्ति के बिना शव बन आते है।दुर्गा शक्ति और विजय का प्रतिरूप है।मातृदेवियां अथवा शक्तियां में केवल प्रजनन कार्य द्वारा सृष्टि की रचना में सहायक है।

अपितु मानव की गतिशीलता की द्योतक है। भारत की प्राचीनतम सिंधु सभ्यता और मिस्र की सभ्यता के समय से ही मातृदेवियों की आराधना लोकप्रिय है। महिषमर्दिनी, अम्बिका, लक्ष्मी और सरस्वती तथा दूसरी देवियां भी तमाम पुरुष देवताओं की शक्तियां है। जिन्हें संपदाय के अंतर्गत गुप्तकाल तथा उसके पश्चात स्वतंत्र उपयोगिता प्राप्त हुई। महिषा-मर्दिनी बाह्य आक्रामक दशाओं से शक्ति समुच्चय एलोरा आदि पुरास्थलों पर द्रष्टव्य है। शिव महाकाल है, इसलिए उनको अभिन्न शक्ति को महाकाली कहकर संबोधित किया गया।गुप्तोत्तर काल में देवी शक्ति का असर उनका वैभव और ऐश्वर्य अत्यधिक बढ़ गया।

मधु-कैटभ, शुभ-निशुभ चंड-मुंड रक्त-बीज सरीखे विकराल असुरों का संहार कर वह देव परिवार में सर्वोच्य हो गई ।असुरों का विनाश कर देवी ने देवताओ तक को भयमुक्त कर दिया था। हालांकि, वे शिव अर्थात कल्याण की ताकत थी, लेकिन दैत्य रूप में स्वतंत्र सता के रूप में अधिष्ठित हो गई।शिव से विलग शांति काली अथवा दुर्गा के रूप में प्रसिद्ध हुई और उनकी उपासना स्वतंत्र रूप में होने लगी।कालान्तर में शेव और संपदायो में समन्वय हुआ और अर्द्धनारीश्वर रूप में दोनों की संयुक्त अर्चना प्रारंभ हो गई ।देवी शक्ति के व्यापक प्रचार में सभी देवियों एक देवी से अभिन्न हो गई। उमा रूप में वह आद्य शक्ति शिव पत्नी और सबकी मां बनी। पार्वती और हेमावती रूप में हिमालय पुत्री कहलाते ही सारे पर्वतीय प्रदेशों में तीव्र गति से लोकप्रिय हो गई।

सुरा, मांस और बलि देने की वजह से तामसिक प्रवृत्ति के लोगों और पुलिन्द, शवर सरीखी जंगली और बर्बर जातियों ने उनको घेर कर शक्ति के रूप में आदर्श मान लिया। काली और कराली गर्म स्वभाव के व्यक्तियों में प्रथम आराध्य हो गई। भद्रकालीके रूप में पूजी जाने पर देवी मानव को कभी पराजित नहीं होने देती, इसलिए मानव मात्र देवी के शरणागत हो गया। देवी धन, पुत्र, आयु और विजय सब प्रदान करती है। सांसारिक लोगों को यह मनोअभिलाषा होती है, जो मनीषी है उन्हें यह मोक्षदा भी है। महिषासुर मर्दन के लिए विष्णु, शिव, ब्रह्मा,इंद्रवरुण, सूर्य सबके तेजाश से देवी का प्रादुर्भाव हुआ इसलिए देवी तेजपुंज हुई ।शक्ति का स्वरूप संपूर्ण है।यह इच्छा, क्रिया, सर्जन, मोह, विनाश समस्त क्रियाओं से परिपूर्ण है जो लोग देवी को विष्णु की शक्ति मानते थे, ये उसे ‘महालक्ष्मी अभया ‘महावैष्णवो कहते थे अन्य शक्ति देवी को वाक रूप में देखते थे।

तथा वागोपासक कहलाते थे, जो देवी को शिव की शक्ति मानते थे ये शाक्त कहलाते थे।खासतौर पर बंगाल शाक्त धर्म का केंद्र बना शक्ति की दार्शनिक सत्ता और व्यावहारिक सत्ता स्वतंत्र और उन्मुक्त अस्तित्व रखती है। प्रज्ञा और स्वप्न दोनों ही महामाया का रूप है ।ब्रह्मा, विष्णु और शिव तत्व से मुक्त होने के कारण उसमें सर्जन, पालन और संहार तीनों का समन्वय है ।इसी वजह श्रद्धालु उन्हें जगतमाता के रूप में अपरिमित श्रद्धा से पूजते चले जा रहे है।आधुनिक काल में जिस तरह लौकिक जगत में देवी की पूजा-अर्चना एक रिवाज हो गया है ।वास्तव में उसकी वास्तविकता मानव जीवन में यही है कि मानव अपने दुर्गुगों को एक-एक करके त्याग दें।नवरात्र की कल्पना अधया तमाम पर्वो पर आध्यात्मिक दृष्टि से स्वयं के दुर्गुणों का त्याग,अपने मे सुधार लाना ही पर्व अथवा व्रत का निजी संदेश है।
भारतीय संस्कृतिके उन मूल्यों को प्रकट करती है, जिसके लिए भारतीय संस्कृति को स्वीकार करने हेतु समस्त संसार भारत कीऔर उन्मुख होगा। अधिस्थ देवी कोववंदना इस प्रकार की गई है।*या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता*

*सप्तशती पाठ*

अश्विनी शुक्ल प्रतिपदा से महानवमी पर्वत किए जाने वालेकार्य को नवरात्र कहा गया है।इन दिनों में पूजा को हीप्रधान माना जाता है ।उपवास आदि तो उसके अंग है। इसमें कुलाचार को अधिक महत्व दिया गया है, अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पूजा परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक उपवास ,एकभुक्त , अभाचित आदि तथा पुजन विधि के संबंध में निर्णय करना चाहिए। किसी कुल विशेष में जप,उपवास आदि नियमों का आधिक्य मिलता है। परंतु शास्त्रकारों के दृष्टिकोण में पूजा को ही प्रधानता दी गई है। कुलाचार के अनुसार जो लोग इसके महत्व कोजानते है ,उन्हें परपरा के अनुसार कार्य दुर्गासप्तशती के पाठ करना का विशेष विधान है ।इसका मुख्य कारण है कि शक्ति की उपासना के सम्बब्ध में जितने ग्रन्थ प्रचलित है। उसमे शप्तशती का विशेष महत्व है। सप्तशती 700 श्लोकों का संग्रह है। जो तीन भागों अथवा तीन संग्रह में विभक्त है। तीन परिधी में विभक्त है। प्रथम चरित्र में ब्रह्मा जी योगगमावा भगवान विष्णु को शक्ति की स्तुति करके उन्हें निंद्रा से जगाया। और इस प्रकार जागृत होने पर उनके द्वारा मधु -कैटभ का नाश किया।

*कांतिलाल मांडोत वरिष्ठ पत्रकार*

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