चढ़ रहा है चुनावी सर्वे का बाजार,चुनावी नतीजों के लिए एक्जिट पोल पर फोकस*
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*चढ़ रहा है चुनावी सर्वे का बाजार,चुनावी नतीजों के लिए एक्जिट पोल पर फोकस*
वोटरों का मिजाज भांपने के लिए 1980 के दशक के अंत में भारत मे पहली बार ओपिनियन पोल किया गया था।तब से अब तक चुनाव खत्म होते ही नेता,बुद्धिजीवी और जनता जनार्दन को एक ही दिलचस्पी रहती है कि आखिर जीत किसकी?कौन बनाएगा सरकार और किस दल का बनेगा मुख्यमंत्री?11 नवम्बर को बिहार के चुनाव पूर्ण हो गए है।14 नवम्बर को नतीजे आएंगे।लेकिन आज ही लोगो के मन मे कुतूहल पैदा हो गया है कि बिहार में सरकार किसकी बनेगी?नीतीश या महागठबंधन की।चुनावी सर्वेक्षण और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जन्म एकसाथ हुआ है।चुनावी सर्वे की लोकप्रियता उतनी ही है,जब तक सटीक जानकारी उपलब्ध हो ।क्योकि गलत नतीजे दर्शाए जाने वाले मीडिया घरानों को जनता विस्मृत कर देती है।आज कई सर्वे मीडिया घराने पर जनता भरोसा करती है। बिहार में सभी एजेंसियां एनडीए की सरकार बनती बता रहे है।वही महागठबंधन की करारी हार बताई जा रही है।पिछले चार दशकों से ज्यादा समय से हर चुनाव के समय का अपरिहार्य बना दिया है।आज 11 नवम्बर को एकटकी लोग टीवी चैनल पर सर्वे के लिए इंतजार कर रहे है।बिना इन सर्वेक्षणों के अभाव में भारत मे चुनावो की कल्पना भी नही की जा सकती है।हालांकि कुछ समाचार चैनल तो साल में कई बार ऐसे सर्वेक्षण करवाते है और इसके जरिये सरकारों की लोकप्रियता को प्रभावित करने वाले मुद्दो की पडताल करते रहते है।ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि आखिर भारत मे इन सर्वेक्षणों का अर्थशास्त्र क्या है?आखिरी इन सर्वेक्षणों को करवाने से किसका भला होता है और यदि कोई संगठन पैसे देकर ऐसे सर्वेक्षण करवाता है तो उसका कोई निजी स्वार्थ भी इसमें जुड़ा होता है।
बिहार में चुनाव का प्रचार और पार्टी क्रियान्वयन पिछले छह महीनों से लगातार चल रहा था। हाल ही सम्पन्न बिहार चुनाव के दौरान एक्जिट पोल पर नजर है।क्योंकि एजेंसी को छोड़कर सटीक सर्वेक्षण देना मुश्किल है।दरअसल, बाजार सर्वेक्षण के बड़ा हिस्सा है।जिसके तहत कम्पनिया कोई उत्पाद बाजार में उतारने या अपने किसी निजी कम्पनियो को फायदा है।राजनैतिक सर्वेक्षण के जरिये मोटा हिस्सा ले लेती है।हालांकि यह देश की तेज गति से तरक्की करने वाले सेक्टर में से एक है।देश में दो सौ से ज्यादा सर्वेक्षण कम्पनिया है जिनकी पूरे देश मे पहुंच है ।बाकि अलग अलग शहरों में छोटे स्तर पर काम करती है।लेनदेन या पैसे के मामले में कोई विशेष फायदे नही है।फिर भी कम्पनिया इसलिए चुनावी सर्वे करवाती है कि इन्हें मुफ्त का प्रचार मिल जाता है।यदि किसी चैनल और मीडिया घराने ने ऐसी किसी एजेंसी को पैसे देकर सर्वे कराया तब तो लागत निकलने के साथ साथ कुछ फायदा भी हो जाता है।आज के दौर में चुनाव के पहले मिलने वाले सर्वे के इनपुट से कई दिनों तक पार्टी नेताओं की खुमारी बरकरार रहती है।नींद अच्छी आती है,जबकि विपरीत परिणाम वाले दलों और पार्टी नेताओं के चेहरे मुरझा जाते है।पिछले कई चुनाव में हम देख रहे है कि अलग अलग एजेंसियों के एक्जिट पोल के नितीजे अलग अलग आते है।इसके पीछे मुख्य वजह यह है कि सर्वे का काम सीटों की संख्या बताना नही है।यदि हम वोट शेयर की स्थिति देखेंगे तो पाएंगे कि प्रतिष्ठित कम्पनियो के सर्वे में पार्टीया को मिलने वाले वोट को अनुमान कमोबेश एक जैसा ही होता है।मगर इन वोटो को सीट में बदलने का फार्मूला अलग अलग अपनाने के कारण उनके सीटों के अनुमान में भारी अंतर हो जाता है।
भारत मे यह हाल है कि वोट शेयर के बावजूद सीटे ज्यादा आती है और ज्यादा सीटे वाली पार्टी विजय घोषित की जाती है।आज के समय में त्वरीत परिणाम की चाह में राजनीतिक दल हर सीमा लांघने के लिए तैयार रहते है।आज सभी की नजरें बिहार चुनाव पर होगी।भारत मे ओपीनियन पोल का पूरा फोकस सिर्फ इस बात पर रहता है कि किसी राजनैतिक दल की कितनी सीटे आएगी।क्योकि वोट शेयर से सरकार की हार जीत निश्चित नही की जाती है।लेकिन सर्वे का काम सीट बताना है।इनके द्वारा सटीक जानकारी तो नही मिलती है लेकिन हार जीत के समीप जरूर पहुंचा दी जाती है।सर्वे के लिए चुनाव के दौरान हर पत्रकार उस वोटर से मिलकर किस दल को वोट किया है।उसको जानने की जिज्ञासा रहती है और यही आधार सर्वे का हिस्सा बन जाता है।
भारत में मीडिया ने इसे सीटों की संख्या तक सीमित कर दिया है। रमेश कोठारी कहते हैं कि सर्वे के बाद मीडिया की खबरों को देखने से यह साफ हो जाता है कि सीट की संख्या के अलावा और कोई डाटा प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जाता क्योंकि मीडिया के दिग्गज मानते हैं कि बाकी डाटा से दर्शक या पाठक बोर हो जाते हैं। इस सोच ने इन सर्वेक्षणों को मजाक बना दिया है।
कई वर्ष पहले देश में सर्वे एजेंसियों पर किए गए स्टिंग ऑपरेशन से यह खुलासा हुआ है कि दरअसल पैसे देकर सीटों के इस खेल को कोई भी अपनी ओर मोड़ सकता है। इस स्टिंग के अनुसार अधिकांश छोटी एजेंसियां पैसे लेकर रॉ डाटा में बदलाव से लेकर अंतिम निष्कर्ष तक में बदलाव करने के लिए तैयार हो गई थीं। ऐसे में माना जाता है कि भारत में चुनावी सर्वे सिर्फ मीडिया हलचल भर बनकर रह गए हैं। अकसर देखा गया है कि न तो राजनीतिक दल उन्हें गंभीरता से लेते हैं और न ही आम जनता उसके आधार पर कोई राय कायम करती है।
हाल के समय में इन सर्वेक्षणों पर भरोसा कम हुआ है। राजूसिंह कहते हैं कि चुनावी सर्वे या फिर चुनाव बाद एक्जिट पोल की पूरी प्रक्रिया वैज्ञानिक पद्धति से होती है। मगर दिक्कत तब आती है जब उसमें निजी हित समाहित हो जाता है। ऐसे में सर्वेक्षण की पवित्रता प्रभावित होती है और इससे सही निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। राजू कहते हैं कि इसी वजह से भारत में चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों में एकरूपता नहीं होती और इसी के कारण वे असली परिणामों से मेल भी नहीं खाते। किए जाने वाले चुनावी सर्वेक्षणों को मीडिया के जरिए लोगों के सामने पेश करने में उनका चेहरा ही एजेंसी की तरफ से सामने रखा जाता था। उसी के जरिए उन्हें आम जनता में बेहद लोकप्रियता भी मिली।
वैसे पिछले करीब 80 फीसदी चुनावों में सीटों का 95 फीसदी तक सही आकलन करने वाली एजेंसी कई है। वे चुनावी सर्वेक्षणों के लिए मार्केट रिसर्च एजेंसियों के अंतरराष्ट्रीय एसोसिएशन द्वारा तय गाइडलाइंस का सख्ती से पालन करते हैं। हालांकी कई उन एजेंसी पर आरोप लगाते हैं कि वे सर्वे के हर स्तर पर कड़ी गोपनीयता बरतते हैं और कभी भी सवाल उठने के बावजूद अपने रॉ डाटा को सार्वजनिक नहीं करते। हालांकि ग्राहकों की निजता को मुख्य वजह बताते हैं।
आज अगर देश में सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता खतरे में आ गई है तोउसके लिए पारदर्शिता का अभाव बड़ी वजह है।
वैसे ओपिनियन पोल का एक दूसरा पहलू भी है। भले ही चैनलों पर दिखाए जाने वाले इन सर्वेक्षणों पर राजनीतिक दल भरोसा नहीं करते हों मगर अधिकांश दल राज्यो की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक्जिट पोल की मदद लेते है।यह साफ है कि ओपिनियन पोल भले ही विश्वसनीयता खो रहे हों मगर उनका धंधा खत्म नहीं होने वाला। आने वाले समय में हमें और अधिक सर्वेक्षण देखने को मिलेंगे।

*कांतिलाल मांडोत वरिष्ठ पत्रकार*
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