अरावली के नाम पर सियासत, क्योकि पहाड़ कटते रहे, अब सड़कें गरमाई जा रही हैं*
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*अरावली के नाम पर सियासत, क्योकि पहाड़ कटते रहे, अब सड़कें गरमाई जा रही हैं*
राजस्थान में अरावली बचाओ अभियान के तहत कांग्रेस एक बार फिर सड़कों पर है। पैदल मार्च, नारे, डीजे, गांधी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण और प्रशासन से टकराव सब कुछ वैसा ही है जैसा किसी बड़े जनांदोलन में दिखाई देता है। दौसा के नेहरू गार्डन से गांधी तिहारे तक मार्च, अजमेर में पुलिस की आपत्ति के बावजूद डीजे पर गाने, सीकर, झुंझुनूं, नागौर और उदयपुर तक विरोध-प्रदर्शन की श्रृंखला यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि कांग्रेस अरावली को लेकर बेहद गंभीर है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह गंभीरता पर्यावरण की है या राजनीति की? और इससे भी बड़ा सवाल क्या अरावली कांग्रेस के शासनकाल में मौजूद नहीं थी?
अरावली पर्वतमाला केवल राजस्थान ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत की जीवनरेखा है। यह पर्वतमाला मरुस्थलीकरण को रोकने, भूजल संरक्षण, जैव विविधता और जलवायु संतुलन में अहम भूमिका निभाती है। पंद्रह जिलों में फैली अरावली का लगभग अस्सी प्रतिशत हिस्सा राजस्थान में है। यह कोई नई जानकारी नहीं है, न ही यह समस्या अचानक पैदा हुई है। दशकों से अरावली के सीने पर अवैध खनन की चोटें पड़ती रही हैं। पहाड़ काटे गए, जंगल उजाड़े गए, जल स्रोत सूखे और प्रशासनिक तंत्र मूकदर्शक बना रहा। यह सब तब भी हुआ जब राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें थीं।
आज कांग्रेस भाजपा सरकार को घेरते हुए यह सवाल उठा रही है कि अरावली को क्यों नहीं बचाया गया। लेकिन क्या कांग्रेस यह भूल गई है कि उसके लंबे शासनकाल में भी खनन माफिया बेलगाम थे? क्या उस दौर में पुलिस और प्रशासन खनन वालों की नहीं सुनते थे? हकीकत यह है कि खनन माफिया किसी एक सरकार के नहीं होते, वे सत्ता के हर दरवाजे पर दस्तक देते हैं और अक्सर भीतर तक पहुंच भी जाते हैं। कांग्रेस के समय में भी यही हुआ। पहाड़ तब भी कटे, ट्रक तब भी दौड़े और फाइलें तब भी दबाई गईं।
यह कहना कि अरावली की इतनी बड़ी पहाड़ियां हाल के कुछ महीनों या एक-दो साल में ही कट गईं, आमजन की बुद्धि को कमतर आंकना है। पहाड़ इतने कम समय में नहीं कटते। इसके लिए वर्षों की ढील, लगातार आंख मूंदे रखने की आदत और राजनीतिक संरक्षण की जरूरत होती है। कांग्रेस यह सब जानती है, समझती है, लेकिन आज मुद्दा बनाकर वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है। गड़े मुर्दे उखाड़ना आसान होता है, लेकिन अपने दामन पर लगे दागों को देखना मुश्किल।
कांग्रेस के विधायक कहते हैं कि कांग्रेस को दोष मत दीजिए। लेकिन सवाल यह है कि दोष किसे दिया जाए? क्या अरावली कांग्रेस शासन के दौरान किसी और राज्य में चली गई थी? क्या तब वन विभाग, खनन विभाग, पुलिस और जिला प्रशासन कांग्रेस सरकार के अधीन नहीं थे? अगर उस समय भी अवैध खनन धड़ल्ले से होता रहा, तो उसकी नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी किसकी थी? कांग्रेस यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि उसने भी इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं दिखाई।
आज भाजपा सरकार कह रही है कि अरावली की सुरक्षा उसकी पहली प्राथमिकता है और कांग्रेस की लीपापोती से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह बयान अपनी जगह है, लेकिन सरकार का दायित्व केवल बयान देने से पूरा नहीं होता। अगर आज भी अवैध खनन हो रहा है, तो उसे रोकना सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन कांग्रेस का सड़कों पर उतरना तब बेमतलब लगता है जब उसका अपना रिकॉर्ड इस मामले में कमजोर रहा हो। विरोध तब विश्वसनीय होता है जब विरोध करने वाला खुद बेदाग हो। यहां कांग्रेस दूध की धुली हुई नहीं है।
अरावली बचाओ अभियान अगर सचमुच पर्यावरण बचाने का आंदोलन होता, तो कांग्रेस इसे सत्ता में रहते हुए भी उसी ताकत से चलाती। तब क्यों नहीं बड़े पैमाने पर जागरण रैलियां निकाली गईं? तब क्यों नहीं खनन माफिया पर कठोर कार्रवाई हुई? तब क्यों नहीं फॉरेस्ट पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही तय की गई? आज यह सवाल उठाया जा रहा है कि अरावली की सुरक्षा के लिए अलग से पुलिस-प्रशासन की व्यवस्था होनी चाहिए। यह सुझाव नया नहीं है। यह मांग वर्षों से उठती रही है। लेकिन जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब इस दिशा में ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए?
फॉरेस्ट पुलिस और वन विभाग की जवाबदेही आज भी एक बड़ा प्रश्न है। अरावली क्षेत्र में अवैध खनन खुलेआम होता है और अक्सर स्थानीय लोग शिकायत करते हैं कि कार्रवाई नाममात्र की होती है। यह तंत्र वर्षों से कमजोर रहा है। इसकी कमजोरी किसी एक सरकार की देन नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का परिणाम है। कांग्रेस इस इच्छाशक्ति की कमी की बड़ी हिस्सेदार रही है।
उदयपुर में अरावली बचाओ जन जागरण रैली टाउन हॉल से चेतक सर्कल तक पहुंची। नारे लगे, भाषण हुए और खनन रोकने की मांग दोहराई गई। यह अच्छी बात है कि लोग जागरूक हो रहे हैं। खनन को रोका जाना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस इस मुद्दे को समाधान के तौर पर देख रही है या केवल विकल्पहीन विरोध के तौर पर? अगर कांग्रेस सच में समाधान चाहती है, तो उसे यह भी बताना होगा कि उसके शासनकाल में क्यों समाधान नहीं निकाला गया।
अरावली का खनन कोई आज की समस्या नहीं है। यह दशकों पुरानी बीमारी है, जिसका इलाज केवल राजनीतिक बयानबाजी से नहीं हो सकता। इसके लिए कठोर कानून, सख्त निगरानी, तकनीकी साधनों का इस्तेमाल और सबसे बढ़कर राजनीतिक संरक्षण का अंत जरूरी है। कांग्रेस को यह स्वीकार करना होगा कि उसके समय में भी खनन माफिया को संरक्षण मिला। जब तक यह आत्मस्वीकृति नहीं होगी, तब तक उसका आंदोलन खोखला ही माना जाएगा।
कांग्रेस आज भाजपा को घेरने के लिए अरावली को हथियार बना रही है। लेकिन यह हथियार दोधारी है। एक धार भाजपा की ओर जाती है, तो दूसरी कांग्रेस की ओर भी। जनता यह सब देख रही है और समझ रही है। वह जानती है कि अरावली को दोनों ही प्रमुख दलों ने अपने-अपने समय में नजरअंदाज किया है। फर्क सिर्फ इतना है कि आज कांग्रेस विपक्ष में है और सड़कों पर है, जबकि कल वह सत्ता में थी और फाइलों के पीछे थी।
अगर कांग्रेस सच में अरावली बचाना चाहती है, तो उसे केवल मार्च और रैलियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे अपने अतीत की गलतियों को स्वीकार कर भविष्य के लिए ठोस रोडमैप देना चाहिए। उसे बताना चाहिए कि अगर वह फिर सत्ता में आती है, तो खनन माफिया से कैसे निपटेगी, वन विभाग को कैसे मजबूत करेगी और अरावली की रक्षा कैसे सुनिश्चित करेगी। बिना आत्मालोचना के कोई भी आंदोलन विश्वसनीय नहीं बन सकता।
अंत में अरावली किसी एक पार्टी की नहीं है। यह प्रकृति की धरोहर है और इसे बचाने की जिम्मेदारी भी सामूहिक है। लेकिन राजनीति में जब कोई दल खुद को पाक-साफ दिखाने की कोशिश करता है और अपने अतीत पर पर्दा डालता है, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। कांग्रेस आज जिन सवालों को उठा रही है, उन्हीं सवालों के जवाब उसे खुद भी देने होंगे। वरना अरावली के नाम पर यह सियासत केवल शोर बनकर रह जाएगी और पहाड़ चुपचाप कटते रहेंगे।
*कांतिलाल मांडोत रास्ट्रीय पत्रकार*
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