अभिमान से आदमी फूल तो सकता है,लेकिन फैल नही सकता*

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*अभिमान से आदमी फूल तो सकता है,लेकिन फैल नही सकता*
प्रत्येक मानव अपने मन में कोई-न-कोई महत्वाकांक्षा सैंजोये रहता है। अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति से तनिक सफलता प्राप्त होते ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति में अहंकार जाग्रत हो जाता है। जब मन में अहंकार जाग्रत हो जाता है तो उसी पल मानव की प्रगति का पथ अवरुद्ध हो जाता है।
अहंकार कषायों की दूसरी श्रेणी में आता है। ज्ञानवान व्यक्ति अहंकार से शून्य होता है। जिसमें ज्ञान का अभाव होता है, उसे यदि पद-पैसा प्राप्त हो जाये तो वह आकाश में उड़ने लगता है। उसके पाँव धरती पर नहीं पड़ते। विनय भाव उसके हृदय से निकल जाता है।
*अहंकार की हवा*
जहाँ अहंकार जागा, वहाँ व्यक्ति स्वयं को शिखर समझने लगता है। दूसरा उसके समक्ष नगण्य हो जाता है। वह उछलता रहता है। फुटवाल से किसी ने प्रश्न किया-भाई। यह दुनियाँ वाले तुम्हारे ठोकर क्यों मारते हैं?”
फुटवाल बोला- “मेरे पेट में अहंकार की हवा भरी हुई है, जब तक यह हवा भरी रहेगी, तब तक मैं उछलता-कूदता रहूँगा, लोग मेरे ठोकरें मारते रहेंगे और दुनियाँ मेरा तमाशा देखती रहेगी।”
*किस बात का अहंकार* ?
यह तो एक प्रतीकात्मक बात थी, लेकिन जो मानव अहंकार करेगा, मान करेगा, यह दुनियाँ उसके भी ठोकरें मारती रहेगी। अरे भाई ! आप किस चीज का अहंकार कर रहे हो? इस दुनियाँ में आपसे भी कई अच्छे-अच्छे शूरवीर, दानवीर पैदा हुए और चले गये। आज उनका कोई अता-पता नहीं है। अपने धन, वैभव, सौन्दर्य का मान करके आत्मा को क्यों मैली कर रहे हो? एक दिन जब तुम्हें सच्चाई का बोघ होगा, तब लगेगा कि जीवन के सुनहरे पल हमने व्यर्थ ही खो दिये। जब तक बुद्धि जाग्रत नहीं होती, मानव मान, अभिमान के खण्डहर में बैठा रहता है। यह अहंकार, अभिमान, मान सभी एक-दूसरे के पर्याय हैं। अहंकार करना अज्ञान का द्योतक है और मान को जीतने से जीव को नम्रता की प्राप्ति होती है।
*मान-माया एक जगह*
आचारांग सूत्र में लिखा है- “जे माणदंसी से मायादंसी।” अर्थात् जो मान वाला है, उसके हृदय में माया भी निवास करती है।
महान् वार्शनिक रस्किन ने ठीक ही कहा था कि “अभिमान से आदमी फूल तो सकता है, पर फैल नहीं सकता।”
इन सब बातों को जानकर मनुष्य को मान का त्याग कर देना चाहिए। नम्रता का भाव यदि मन में पैदा हो जाये तो मान अपने आप समाप्त हो जाता है। मान का त्याग करने के लिए दशवैकालिक सूत्र में बहुत ही सुन्दर उक्ति लिखी है-
*न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे। सुअ लाभे न मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सि बुद्धिए*॥
अर्थात् दूसरों का तिरस्कार मत करो। मैं ज्ञानी हूँ, लब्धिमान हूँ, जाति-सम्पन्न हूँ, तपस्वी हूँ, बुद्धिमान हूँ ऐसे अपने आपको बड़ा मत समझो, कारण कि ऐसा करने से जीवन सार्थक नहीं होगा। व्यर्थ का अभिमान लोगों में हँसी का पात्र बना देता है। धुओं और राख यदि अहंकारवश यह शेखी बघारें कि हम अग्निवंश के हैं तो उससे संसार का क्या भला होगा ?
*परिचय देने में भी अहंकार*
आज भी कई बार ऐसे लोगों से मुलाकात हो जाती है, जो अपने पुरखों के नाम से अपना परिचय देते हैं। जो व्यक्ति अपना नाम बताकर परिचय देता है, वह उत्तम श्रेणी का होता है। जो अपने पिता के नाम से अपना परिचय दे, वह मध्यम श्रेणी का तथा जो अपने श्वसुर का नाम लेकर परिचय देता है, वह अधम श्रेणी का होता है। आपके नाम से लोग आपको जानें यही उत्तम परिचय है। पिता या श्वसुर के नाम का अभिमान करके आप उच्चता की बात नहीं करते। कई सज्जन अपनी पीढ़ियों की बात करके अभिमान करते हैं कि मैं उस खानदान का हूँ। मेरे दादा जी रियासत के दीवान थे। हमारे घर में घोड़े-गाड़ी रहते थे। उन्हें पूछो भाई, अब क्या हो गया ? तुमने अपनी परम्परा क्यों नष्ट कर दी। तुम्हारी यह दशा क्यों हो रही है? तुम्हारे दादा जी दीवान रहे और तुम्हें कोई चौकीदार भी नहीं बनाना चाहता।
*प्रभु दर्शन का उपाय*
यदि जीवन में कुछ बनना है, कुछ ज्ञान प्राप्त करना है तो मान के सिंहासन का परित्याग करना पड़ेगा।
मान एक दिन टूटकर ही रहता है। इसलिए मानव को जीवन में इससे दूर रहना ही चाहिए।
आज किसी के पास थोडा पद-पैसा आ जाता है तो वह अपनों को पहचानना ही छोड़ देता है, क्यों ऐसा क्या पा लिया है तुमने? इस मान और अहंकार ने कितने राज्य नष्ट कर दिये, कितने परिवार नष्ट हो गये कभी सोचा है आपने? जहाँ अपनत्व है. वहाँ तो मान आना ही नहीं चाहिए। मान के कारण ही आज परिवार टूट रहे हैं. पति-पत्नी में तलाक हो रहे हैं। बच्चों की जिन्दगी माता-पिता के अहं को टकराहट में तबाह हो रही हैं। इसका कुछ उपाय है आपके पास ? पद और पैसे के गुमान में लोगों की आँखों पर परदा गिर जाता है पर उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए कि-कभी लुहार से काम पड़ता है कभी सुनार से काम पड़ता है, कभी नकद से काम पड़ता है कभी उधार से काम पड़ता है। हमें किसी की जरूरत नहीं है ऐसा कहना अहंभाव है-जो संसार में है उसे सारे संसार से काम पड़ता है।
सभी अपूर्ण हैं*
अपने आपमें कोई भी पूर्ण नहीं है। सम्पत्ति का मान करने वाले यह ध्यान रखें कि इस धरती पर बड़े-बड़े धन-कुबेर हुए। राजा मिडास हुआ, जिसे बरदान मिला कि वह जिसे छुएगा वही सोना हो जाएगा। उसे भी अपनी भूल का अहसास हुआ। यह सम्पत्ति तो इसी मिट्टी का अंग है। लोगों के पास हजार-हजार दो दो हजार के नोट थे, सरकार ने अचानक बन्द कर दिये। करोड़ों रुपये रद्दी हो गये।दुनिया में भूकम्प आया, लाखों रुपयों की लागत के भवन एक क्षण में धराशायी हो गये। तुम किसका मान कर रहे हो?
कुछ लोगों को अपने पद का मान है। अरे, ऐसा मत करो। राज बनते हैं, बिगड़ते हैं। मुगल, अंग्रेज आये और चले गये। इन्दिरा गांधी में मान चढ़ा तो जनता ने वास्तविकता जता दी, उसे अहसास करा दिया। उसने भूल स्वीकारी तो पुनः सत्ता पर चढ़ा दिया। कुर्सी स्थायी नहीं है, इसलिए भले कार्य करने के मौके ढूँढ़ते रहो। मान करोगे तो सत्ता हाथ से निकल जायेगी।
रूप और यौवन का मान भी निरर्थक है। चार दिन की चाँदनी के बाद अँधेरा तो होना ही है। सौन्दर्य ढलने में देर नहीं लगती। बीमारी चेहरे का रूप बदल देती है। काले बाल सफेद हो जाते हैं। इसलिए अहंकार मत करो।
कांतिलाल मांडोत*

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