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आत्म कल्याण के लिए और जीवन उपवन को सजाने,भावना में संयम धारण कर जेठालाल संयम पथ पर आगे बढ बने जैन संत विजयमुनि*

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*आत्म कल्याण के लिए और जीवन उपवन को सजाने,भावना में संयम धारण कर जेठालाल संयम पथ पर आगे बढ बने जैन संत विजयमुनि*
कांतिलाल मांडोत
गोगुन्दा/सायरा 15 मार्च
संपूर्ण संसार आधी,व्याधि और उपाधि से संत्रस्त है।यहां कदम कदम पर दुःखों का जाल बिछा है।चारो और परेशानियां और चिंताओं की भयंकर ज्वालाएं सुलग रही है।मनुष्य शांति की तलाश में इधर उधर दौड़ता है,लेकिन शांति का दर्शन दुर्लभ हो गया है।ग्राम हो या नगर,वन हो या उपवन आज भी कही भी शांति दिखाई नही देती।संतो के सतत और दीर्धकालीन संपर्क से राजस्थान के स्वर्णकार जेठालाल ने भगवती दीक्षा अंगीकार कर जैन संत विजयमुनि मसा बन गए।क्योकि धर्म के उपवन में संतो को शांति है।धर्म का वही आश्रय संत समाज हमको दे सकते है।जो अपने आप से लड़ना एवम संघर्ष करना जान जाता है,उसे फिर बाहरी संघर्ष की आवश्यकता नही होती।उसे दुनिया की कोई शक्ति भयभीत नही कर सकती।देर सवेर किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि याद आ ही जाती है।वैसे ही जेठालाल ने मुनि जीवन यापन करने और वैराग्य पथ के अनुगामी बनकर समाज को नई और अध्य्यात्मिक पथगामी बनाने केलिए और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए वृद्ध अवस्था मे वैराग्य के पथ पर चल दिये।उनको यह अहसास हुआ कि जीवन बड़ा अमूल्य है।इसे जानबूझकर संसार की ज्वालाओ में नही जलाना है।अब जीवन मे पुण्यकार्य कर इहलोक और परलोक सुधारने के लिए जेठालाल ने मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण कर ब्राह्मण स्वर्णकार समाज का नाम देदीप्यमान किया और हेड़ाऊ गाम सत लासना मूल पलासमा सायरा का नाम सुवर्ण अक्षर में अंकित किया है।
भक्त है,साधक है,आराधक है।इसलिए भगवान उन पर कृपा करते है।संत साधक अपने लिए नही साधना आराधना नही करते ,वे तो विश्वकल्याण हेतु भगवान एवं धर्म की उपासना में लगे रहते है।वे मानव मात्र को मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न करते है।घोड़े को पानी तक ले जाया जा सकता है,लेकिन पानी तो वह अपनी इच्छा से ही पीयेगा।वही स्थिति सांसारिक प्राणियों की है।उनमें धर्म के प्रति प्यास नही है।इसलिए समय समय पर संत समागम करना ही चाहिए।आज आवश्यकता प्यास जगाने की है।क्योंकि धर्म का पानी तो है,पर उसे पीने वालो की कमी है।जेठालाल ने यह अनुभव किया कि धर्म संसार के बंधनों को तोड़ता है और उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने की ठान ली।अब विजयमुनि का जीवन वर्षा के पश्चात निर्मल हुए आकाश की भांति लगने लग गया है सांसारिक बोझ से मुक्ति मिली है।अब मन मे न मोह है और राग,न ईर्ष्या न द्वेष और अब न कोई इच्छाये होगी।मुनि ने इस संसार का स्वरुप पहचान कर अपना पथ स्वयं ने चुन लिया।धर्म तो सभी का कल्याण करने वाला है।यह हजारो वर्ष पहले भी तारणहार था और आज भी वैसी ही क्षमता है और भविष्य में भी यही शक्ति रहेगी।अब धर्म के पथ पर चल कर अपनी आत्मा और समाज के कल्याण के लिए विजयमुनि चल पड़े है।अब संत विजयमुनि आपको हमको धर्म का आश्रय देने में पूरा सहयोग रहेगा।
संयम आत्मा की निधि है और भौतिक पदार्थ सभी बाहर के साधना है।यदि साधक अंदर की साधना बराबर नही करता है तो उसकी साधना बेकार है। इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए संत समागम एयर संत बनकर साधना करते है और आत्मा का कल्याण करते है। आत्मा का चमकना संयम का चमकना है। जहाँ संयम चमकेगा वहाँ समाज से निश्चित रूप से चमकेगा; प्रदेश, राष्ट्र और विश्व की विभूतियाँ संयम भाव से चमकेगी।यह संत समाज की सयंम साधना का महत्व है।
सायरा के पलासमा गांव के जेठालाल स्वर्णकार सांसारिक जीवन का त्याग कर जिन शासन जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की है। इस मौके पर अखिल मेवाड़ ब्राह्मण स्वर्णकार समाज ने हर्ष जताया है।गुजरात के सतलासना में आयोजित कार्यक्रम में आचार्य देव सूरीश्वर महाराज के सानिध्य मे मुमुक्षु रत्न जेठालाल ने दीक्षा ग्रहण कर मुनिराज विजय महाराज बने ।इस मौके पर गोगुंदा निवासी अशोक सोनी और लालकृष्ण सोनी ने कहा की ये समस्त अखिल मेवाड़ ब्राह्मण स्वर्णकार समाज के लिए गौरवमय क्षण है

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