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भारत को सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान करने वाले गुरु गोविदसिह हिन्दू जीवन दर्शन के पुरोधा*

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गुरु गोविंदसिंह जन्म जयंती
*भारत को सांस्कृतिकस्वरूप प्रदान करने वाले गुरु गोविदसिह हिन्दू जीवन दर्शन के पुरोधा*
कांतिलाल मांडोत
सिस्खों के दसवें तथा मानवीय रूप में अतिम गुरु गोविंदसिंह जी का जन्म 1666 को पटना में हुआ था।
नौ वर्ष की आयु में वे 24 नवंबर 1675 को गुरु बने।इस संसार से विदा लेने से पहले उन्होंने गरू प्रथ साहिब जी को सिखों का अगला गुरु घोषित किया था। खालसा पंथ की स्थापना करके उन्होंने सिख धर्म को मौजूदा स्वरूप प्रदान किया। उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों में गुरु ग्रंथ साहिब को पूर्ण करना भी शामिल है।
नौवे सिख गुरु गुरुतेग बहादुर और उनकी पत्नी माता गुजरी के यहां पटना में जन्में गोविंदसिंह का प्रारंभिक नाम गोबिंद राय था ।जन्म के समय उनके पिता आसाम की धार्मिक यात्रा पर थे।जनश्रुति है कि वर्तमान हरियाणा के करनाल जिले के ठाकसा गांव के एक फकीर पीर भोकन शाह ने उनके जन्म की भविष्य वाणी पहले हो कर दी थी।एक दिन नमाज करते वक्त भीकन शाह ने पूरब की तरफ सिजदा किया जबकि इस्लामिक उपासना पद्धति में पश्चिम की ओर मुंह करके नमाज पढ़ी जाती है।

जब गांव वालों ने उनसे उनके इस आश्चर्य भरे व्यवहार के बारे में पूछा तब पीर साहब ने बताया जिसे ईश्वर ने उद्धारक के तौर पर चुना है, पटना में पैदा होगा। जो कि पूरब में पड़ता है. इसके बाद पीर भीकन शाह अपने कुछ राय ने अपने जीवन के प्रारंभिक पांच वर्ष पटना में ही बिताए थे।बचपन में दूसरे बच्चों के साथ युद्ध के खेल खेलते थे। एक ब्राह्मण पंडित शिवदत्त समेत उनके कई प्रशंसक थे।एक बार पटना के निःसंतान राजा फतेहचंद और उनकी पत्नी पंडित शिवदत्त के यहां गए और उनसे एक बच्चे का आशीर्वाद मांगा।शिवदत्त ने उन्हें सलाह दी कि यदि गोविंद राय जैसा निष्पाप निश्च्छल बच्चा उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करेगा तो उनकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। तब राजा और रानी ने गोविंद राय से प्रार्थना कि वे उनकी संतान प्राप्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करें। यह संतान बिल्कुल गोबिंद राय जैसी ही हो. तब गोविंद राय हल्के से मुस्कराए और बोले कि मेरे जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए रानी साहिबा उन्हें ही अपना बेटा बुला सकती हैं।उस दिन से रानी उन्हें बाला प्रीतम (बाल ईश्वर) के नाम से बुलाने लगीं।अब भी कहीं-कहीं गुरु गोविंद सिंह का उद्धरण देते वक्त लोग बाला प्रीतम शब्द का प्रयोग करते हैं। राजा- रानी ने गोबिंद राय और उनके दोस्तों के लिए महल के दरवाजे खोल दिए। उनके खाने के लिए एक बड़ा हाल भी बनवाया।

*आनंदपुर निवास*
गुरु तेग बहादुर ने बिलासपुर (कहलूर) के राजा से जमीन खरीदकर 1665 में आनंदपुर साहिब का शिलान्यास किया था।पूर्वी भारत की यात्रा के पश्चात ना कोई उन्होंने अपना परिवार आनंदपुर साहिब बुला लिया। तब उन्हें ही इस जगह को चक्क नानकी कहा जाता था।उन्हें शिवालिक पर्वतमाला की तलहटी में बसे इस शहर में गोबिंद राय ने मार्च 1672 में पैर रखा।उनकी प्रारंभिक शिक्षा में पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, फारसी और अरबी राजा- भाषाओं का ज्ञान शामिल था।
साथ ही सैन्य प्रशिक्षण महल भी। हिंदी और संस्कृत का अध्ययन पटना में शुरू किया।आनंदपुर साहिब में साहिब चंद से उन्होंने सकों पंजाबी सीखी।काजी पीर मोहम्मद ने उन्हें फारसी नाम और उर्दू का ज्ञान दिया।उनके सैन्य प्रशिक्षण के लिए बालक एक राजपूत योद्धा नियुक्त किया गया था। 1675 में कश्मीरी पंडितों को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किए जाने के खिलाफ गुरु तेग बहादुर ने मुगल बादशाह औरंगजेब से बात की। औरगंजेब को यह बात पसंद नहीं आई और उसने 11 नवंबर को गुरु तेग बहादुर का चांदनी चौक दिल्ली में सरे बाजार
सिर कलम करवा दिया। गुरु तेग बहादुर का कटा सिर प्रदर्शन के लिए चौक पर रखा जाने वाला था की नृशंश हत्या से उनके मानने वाले डर गए.।कुछ लोगों ने तो खुद को गुरु का समर्थक मानने से भी इंकार दिया।उन्हें डर था कि बादशाह उन्हें भी मरवा देगा।गुरु तेग बहादुर के एक सच्चे भक्त भाई जैता (भाई जीवन सिंह) ने अपने गुरु के कटे हुए सिर की नुमाइश होने से पहले ही उठाकर आनंदपुर पहुंचा दिया।गुरु तेगबहादुर ने अपनी मृत्यु से पहले ही अपने पुत्र गोबिंदराय को अगला गुरु घोषित कर दिया था।इसलिए उनके बाद गोबिंद राय ने सिखों के दसवें गुरु का पदभार संभाला. दिल्ली में अपने पिता के साथ हुई घटना से सबक लेते हुए उन्होंने अपने समर्थकों में बलिदानी जजबात भरने का काम शुरु किया। उन्होंने 52 विद्वान कवियों को वीरता पूर्ण संस्कृत काव्यों को सरल भाषा में अनुबाद करने के काम में लगा दिया। सरे बाजार अपने समर्थकों में युद्धोन्माद भरने के लिए सरे बाजार में सिर कलम करवा दिया।गुरु तेग बहादुर का कटा सिर प्रदर्शन के लिए चौक पर रखा जाने वाला था. की नृशंश हत्या से उनके मानने वाले डर गए।कुछ लोगों ने तो खुद को गुरु का समर्थक मानने से भी इंकार दिया।उन्हें डर था कि बादशाह उन्हें भी मरवा देगा। गुरु तेग बहादुर के एक सच्चे भक्त भाई जैता (भाई जीवन सिंह) ने अपने गुरु के कटे हुए सिर की नुमाइश होने से पहले ही उठाकर आनंदपुर पहुंचा दिया।

गुरु तेगबहादुर ने अपनी मृत्यु से पहले ही अपने पुत्र गोबिंदराय को अगला गुरु घोषित कर दिया था।इसलिए उनके बाद गोविंद राय ने सिखों के दसवें गुरु का पद भार से संभाल लिया।दिल्ली में अपने पिता के साथ हुई घटना से सबक लेते हुए उन्होंने अपने समर्थकों में बलिदान जज्बात भरने का काम किया।उन्होंने 52 विद्वान कवियों को वीरतापूर्ण संस्कृत काव्यों को सरल भाषा मे अनुवाद करने के काम मे लगा दिया अपने समर्थकों में युधोन्माद भरने के लिए कई रचनाओं में रणगीत लिखे।साथ ही उन्होंने प्रेम, समानता, एक ईश्वर की उपासना, मूर्तिपूजा के हास और अंधविश्वास दूर करने वाली रचनाएं भी लिखी। गुरु गोबिन्द राय के बढ़ते प्रभाव से बिलासपुर के राजा भीमचंद कोचिंता होने लगी है। आनंदपुर बिलासपुर की सीमा में ही स्थित था इधर गुरुजी ने अपने सैनिकों में जोश भरने के लिए रण नगाड़ा बनाने का आदेश दिया।इस तरह के जंजी नंगाड़े बजाना उन दिनों सेना नायकों तक ही सीमित था। राजा ने रण नगाड़े को एक विद्रोही कदम माना। उसने गुरुजी से आनंदपुर में एक मुलाकात की।गुरु के दरबार में राजा का भव्य स्वागतकिया गया वहां भक्तों द्वारा गुरु को अर्पण किए गए उपहारों को देखकर राजा की आंखें फटी रह गई। बाद में भीमचंद ने गुरुजी के पास संदेश भिजवाया कि वह प्रसादी नामक हाथी पुर सवारी करना चाहता है। यह हाथी भक्तों ने गुरुजी को भेंट किया था।गुरुजी ने राजा की नीयत भाप ली कि एक बार सवारी करने के बाद राजा हाथी वापस नहीं करेगा।इसलिए उन्होंने राजा को यह कहकर हाथी देने से इंकार कर दिया कि इससे भक्त नाराज होंगे। इन सब घटनाओं से राजा और गुरुजी के बीच तनाव बढ़ता ही गया। अप्रैल 1685 में सिरपुर के राजा मत प्रकाश के बुलाया।
 

 *कांतिलाल मांडोत*

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