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मन और आत्मा  की दीवाली है संवत्सरी महापर्व*

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**मन और आत्मा  की दीवाली है संवत्सरी महापर्व*

आज संवत्सरी का महापर्व है। जन-जन के अन्तर्मानस में अभिनव जागृति का संदेश लेकर यह पर्व उपस्थित हो गया है। इसे क्षमा पर्व भी कहते हैं। इस पर्व को मनाने का क्या उद्देश्य है? आज ही क्यों मनाया जाता है? आगे पीछे भी तो मनाया जा सकता है, पर ऐसी बात नहीं है। इस पर्व के पीछे एक इतिहास है, उसे जानना-समझना भी प्रासंगिक है।चातुर्मास के एक सौ बीस दिनों में जब सत्तर दिन शेष रह जाते हैं और शुरु के उनपचास दिन बीतने पर जब पचासवाँ दिन आता है तो वहीं सांवत्सरिक दिवस होता है। पचासवें दिन को संवत्सरी के रूप में मनाने का क्या रहस्य है? इसे भी आप जानें।
उत्सर्पिणीकाल के पहले आरे में प्रकृति असौम्य और कुपित थी। सूर्य का ताप इतना प्रचण्ड-भीषण था कि मानव का खुले में रहना तो दूर, घूम- फिर भी नहीं सकता था। धरती की रेत-बालू का स्पर्श दहकती आग के समान था। उस समय का मानव प्रकृति की इस प्रतिकूलता के कारण- गंगा- सिन्धु नदियों के किनारे, वैताढ्य पर्वत की गुफाओं में रहता था। प्रातःकाल की ठंडक में तत्कालीन मनुष्य जलीय जीवों को रेत-बालू में गाड़कर गुफाओं में चले जाते थे। शाम तक वे जीव उष्मा से पक जाते थे। तब शाम को इन्हीं जीवों का वे आहार करते थे। मनुष्य मांसभक्षी और हिंसक थे। यों कहना चाहिए कि उत्सर्पिणीकाल के पहले. आरे का मनुष्य, मानव न होकर दानव, क्रूर, असहिष्णु, हिंसक और निर्दयी था। जब दूसरा आरा शुरू हुआ तो प्रकृति ने अपना रूप बदला वह सौम्य और अनुकूल होने लगी। संवर्त्तक मेघों की वृष्टि सात दिन तक हुई। फिर सात दिन मौसम खुश्क और खुला रहा। फिर सात दिन दुग्ध वृष्टि हुई। फिर सात दिन मौसम खुला रहा। सात- सात दिन के इसी क्रम से अमृतमेघ, रसमेघ, घृतमेघ और जलमेघ लगातार वर्षे। एक कम पचास, उनपचास दिन बीते तो प्रकृति हरी-भरी हो गई। फल-फूलों से वृक्ष लद चुके थे। पचासवें दिन का मौसम बड़ा सुहाना और था। सभी मानव गुफाओं से बाहर निकले और आपस में मिलकर एक संकल्प किया-‘हमारे खाने को जब इतने अच्छे मीठे मधुरे फल हैं तो अब हम मांस का उपयोग क्यों करें? हम विशुद्ध शाकाहारी क्यों न बनें। इस प्रकार आज के ही दिन मनुष्यों ने क्रूरता और हिंसा का त्याग कर प्रेम का पाठ सीखा।’इस प्रकार अपने अन्तःकरण की शुद्धि के संकल्प का वह दिन सांवत्सरिक दिन निश्चित हुआ। यह नव वर्ष का पहला दिन है। बोलचाल, जन प्रचलन में यही सांवत्सरिक पर्व या ‘संवत्सरी’ के नाम से जाना जाने लगा।

संवत्सरी पर्व यद्यपि जैन समाज का महापर्व है, पर मेरी दृष्टि में तो दानवता से मानवता का वरण करने के कारण यह मानवता का महापर्व है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि भगवान महावीर ने आत्मशुद्धि के लिए इसी दिन को सांवत्सरिक दिवस निश्चित किया-
क्षमा करें और क्षमा माँग लें, जीत है इसमें हार नहीं।
*क्षमा वीर का भूषण हैं, यह कायर का व्यवहार नहीं*
अन्त पुनः आप सभी से मेरा विशेष आग्रह है कि पारस्परिकता को प्रगाढ़ता दें, एक-दूसरे को ठीक तरह से समझें, किसी के प्रति कटुता और कालुष्य का भाव अपने मन में न रखें। कटुता का भाव सबसे पहले उसी का अनिष्ट करता है, जो इसे अपने भीतर स्थान देता है। क्षमा और समत्व के आधार पर सम्पूर्ण संसार में निश्चित रूप से मधुरता से परिपूर्ण वातावरण निर्मित किया जा सकता है। यदि ऐसा कुछ कर पाये और मैत्री भाव के दीप संजो सके तो यह महापर्व सम्वत्सरी सभी के लिए वरदान रूप सिद्ध होगा।

संवत्सरी महापर्व का जो विशेष संदेश है, वह यह है कि व्यक्ति अपने भीतर में सम्पूर्ण जीव जगत अर्थात प्राणीमात्र के प्रति क्षमा का, समत्व का पवित्र भाव जागृत करे। आध्यात्मिक साधना में तभी प्राण पैदा होता है, जब समत्व और उपशम का भाव जीवन में स्थान पाता है। महापर्व संवत्सरी के अवसर पर व्यक्ति सम्पूर्ण जीव जगत को क्षमा देता है और क्षमा लेता है। इस दृष्टि से हमारे यहाँ एक गाथा विश्रुत है-
*वामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा वि खमन्तु में । मित्ति में सव्व भूएस, वेरं मज्झं न केाइ*॥
इस गाथा का अभिप्राय है कि मैं सम्पूर्ण जीव जगत से क्षमा माँग रहा हूँ, वे भी मुझे क्षमा करें। मेरी सभी प्राणियों के साथ मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर-विरोध नहीं है। साधक कामना करता है- ‘सर्वा आशा ममः मित्रं भवन्तु’ अर्थात् सब दिशाएँ मेरी मित्र हो। क्षमापना का यह भाव, कोई सामान्य भाव नहीं है। यह भाव यदि जीवन में प्रविष्ट हो जाता है तो फिर किसी के साथ किसी भी प्रकार की कटुता की, कोई कल्पना ही नहीं रह जाती। यह भाव इतना प्रभावी भाव है कि यदि व्यक्ति अपने जीवन के व्यवहार में सच्चे अर्थों में आत्मसात कर ले तो विश्व में कहीं भी किसी भी प्रकार के वैर-विरोध की संभावना ही न रहे।
*क्षमा अनुभूति है, अभिव्यक्ति नहीं*
अंतर का आलोक है। क्षमा जीवन की सौरभ है। इससे प्रफुल्लता की अभिवृद्धि होती है। क्षमा सबसे बड़ा धर्म है और सबसे बड़ा तप है। इससे सम्पूर्ण जीवन और जगत गौरवान्वित होता है, इसकी अनुभूति हार्दिकता से जुड़कर ही की जा सकती है। लेकिन विडम्बना यह है कि क्षमा को आज अभिव्यक्ति के स्तर पर ही जीया जा रहा है, जबकि होना यह चाहिए कि इसे अभिव्यक्ति के स्तर पर नहीं, अपितु अनुभूति के स्तर पर जीया जाए।

महापर्व संवत्सरी का भी यदि कोई उल्लंघन कर जाता है तो फिर उसके जीवन का समूचा आध्यात्मिक तंत्र ही गड़बड़ा जाता है। विकृतियों और कषायों को चिरकाल तक जीवन में पालने का अर्थ पतन की परम्परा को प्रश्रय देना है। जीवन में पतन का सिलसिला अत्यन्त दुःखद हुआ करता है। बुद्धिमान वह है जो जीवन के विकास की दिशाओं को हर संभव प्रशस्त करता है। कारण कि आत्मशुद्धि के अभाव में सिद्धि संभव नहीं है।विषमता और कषाय का भाव यदि जीवन में बरकरार रहता है तो साधु हो अथवा श्रावक इनके महाव्रतों और अणुव्रतों का पक्ष निर्मल नहीं रह पाता। अतः जीवन में विषमता और कषाय के भावों को न आने दें। इनकी अभिवृद्धि से हानि ही हानि है। इनमें किसी भी प्रकार के लाभ को खोजना स्पष्टतः अज्ञान और अविवेक है। विषमता के भावों को जहर से ज्यादा खतरनाक माना गया है। जहर का सेवन करने वाला तो प्रयत्नों से बच भी जाता है, पर जिसने विषमता के जहर से स्वयं को संलग्न कर दिया है, वह
अन्त में पुनः आप सभी से मेरा विशेष आग्रह है कि पारस्परिकता को प्रगाढ़ता दे, एक-दूसरे को ठीक तरह से समझें, किसी के प्रति कटुता और कालुष्य का भाव अपने मन में न रखें। कटुता का भाव सबसे पहले उसी का अनिष्ट करता है, जो इसे अपने भीतर स्थान देता है। क्षमा और समत्व के आधार पर सम्पूर्ण संसार में निश्चित रूप से मधुरता से परिपूर्ण वातावरण निर्मित किया जा सकता है। यदि ऐसा कुछ कर पाये और मैत्री-भाव के दीप संजो सके तो यह महापर्व सम्वत्सरी सभी के लिए वरदान रूप सिद्ध होगा।
*संवत्सरी वर्षभर का लेखा-जोखा*
संवत्सरी पर्युषण पर्व का आठवाँ पूर्णाहुति दिवस है। सात का सामूहिक कार्यक्रम हो जाने के बाद आज का दिन इस पर्वाधिराज का उपसंहार ही निचोड़ है।
हम इस दिन को संवत्सरी क्यों कहते हैं ? संवत्सरी का अर्थ है-वर्ष का सबसे महत्त्वपूर्ण विशिष्ट दिन। संवत्सर नाम है वर्ष का विक्रम संवत् के अनुसार चैत्र शुक्ल एकम नया संवत्सर का दिन है। ईस्वी सन् की कालगणना के अनुसार १ जनवरी संवत्सर का आदि दिन है और हमारे राजस्थानी और गुजराती समाज में दीपावली से नया संवत्सर मनाते हैं। दीवाली संवत्सर का अंतिम दिवस भी है और आदि दिवस भी। इस दिन पिछले वर्ष का आय-व्यय, हिसाब-किताब मिलाया जाता है, लाभ-हानि का तलपट निकाला जाता है और अगले दिन से नये खाते चालू हो जाते हैं।लेकिन दिवाली पर लेखा जोखा व्यापारी देखता है।क्योंकि सरकार ने मार्च में लेनदेन की पद्धति शुरू की है।

हमारे धार्मिक जगत् में संवत्सरी आत्मा की दीवाली का दिन है। दीवाली की तरह इस दिन उपवास, प्रतिक्रमण, आलोयणा, क्षमापना आदि द्वारा आत्म-शुद्धि की जाती है। मन में जमा विचारों का मैल, दुर्भावों का कूड़ा-कचरा हटाया जाता है। मन की और आत्मा की शुद्धि करने के लिए तपस्या, आलोचना, प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण आदि किया जाता है। इसी के साथ आत्म-चिन्तन किया जाता है। साधक एकान्त में बैठकर अन्तःकरण की साक्षी से अपना निरीक्षण करता है। गत वर्ष में मैंने क्या-क्या बुरे काम किये, कितने किये। अपने व्रतों में कहाँ-कहाँ दोष लगाया, कहाँ पर अशुद्धि का मैल जमा है। मन की गहराई में उतरकर उनका चिन्तन करता है, उनका निरीक्षण करता है, स्मृतियों पर जोर देकर उन कार्यों को याद करता है और चित्र की भाँति एक-एक अपराध, एक-एक पाप उसके सामने आते हैं। मन कितना हल्का हो जाता है इस आत्म-निरीक्षण से।
*मन की गाँठें खोलने का दिन है।*
संवत्सरी के चार महत्त्वपूर्ण अंग हैं जो अवश्यमेव कर्त्तव्य हैं। इसलिए सबसे पहला कर्त्तव्य है उपवास। दूसरा प्रतिक्रमण, तीसरा आलोयणा और चौथा काम है क्षमापना । उपवास से तन की शुद्धि होती है, मन की भी शुद्धि होती है। विकारों की शांति और जिह्वा इन्द्रिय का संयम करने के लिए उपवास बहुत जरूरी है।

जिस वीर के हाथ में क्षमा का अमोघ शस्त्र है, उसका दुर्जन कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। राम का बाण कभी खाली नहीं जाता था, वैसा ही क्षमा का तीर कभी निष्फल नहीं होता। रामबाण से भी इसकी विलक्षणता है, राम का बाण शत्रु का नाश करता था परन्तु क्षमाबाण शत्रुता का ही नाश कर देता है। शत्रु को जीवनदान देता है, शत्रु को मित्र बनाता है और शत्रुता को मिटाता है। ऐसा अद्भुत शंस्त्र जिस व्यक्ति के पास हो, उसे संसार में कहीं कोई भय नहीं। आज संवत्सरी के दिन हम अभय बनने का संकल्प करें, मन की पवित्रता और मन की निर्भीकता का मार्ग प्रशस्त करें संवत्सरी पर्व की आराधना करके।*मिच्छामि दुक्कड़म*

                         

                               *कांतिलाल मांडोत*

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