पर्व मनोवैज्ञानिक रूप से समाज का दर्पण होता है-जिनेन्द्रमुनि मसा*
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*पर्व मनोवैज्ञानिक रूप से समाज का दर्पण होता है-जिनेन्द्रमुनि मसा*
कांतिलाल मांडोत
गोगुन्दा 3 अक्टूबर
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ उमरणा के स्थानकभवन में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि भारतीय संस्कृति एक प्रकार से पर्वो की संस्कृति मानी जाती है।पर्वो व त्यौहारों का केवल सामाजिक महत्व ही नही है।इनके साथ मनुष्य के आध्यात्मिक,आंतरिक तथा व्यक्तिगत जीवन की चेतना भीजुड़ी हुई है।नवरात्रि के शुभ आगमन पर मुनि ने कहा कि पूजा अर्चना एवं अलग अलग देवी स्वरूपों की आराधना से भक्तजन आशीर्वाद ग्रहण कर मनोकामनाएं पूर्ण करने का अवसर प्राप्त हुआ है।गरबा संस्कृति विश्व पटल पर उच्च आदर्श की झांकी प्रस्तुत कर रही है।जिससे युवा एवम युवतियां गरबा नृत्य कर माता के चरणों मे भावनात्मक दृष्टिकोण से मनवांछित फल प्राप्त कर रहे है।जैन मुनि ने कहा प्रत्येक पर्व के साथ ऊंचे आध्यात्मिक आदर्श,उच्च संकल्प और पवित्र कार्यो की भावना जुड़ी है।जिस कारण पर्वो का संबंध धर्म और समाज के साथ जुड़ जाता है और पर्व सामाजिक उल्लास के साथ ही मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना को जगाने के प्रतीक बन जाते है।पर्व उस समाज की सभ्यता ,संस्कृति ,रुचि और इतिहास का प्रतीक होता है।वह अध्यात्म एवं समाज चेतना का अंतः प्रवाही स्त्रोत है।पर्वो के पीछे समाज के आदर्श कही प्रतीक कल्पना के रूप में और कही इतिहास के घटनाक्रम के रूप में जुड़े रहते है।जैन मुनि ने कहा पर्व मनोवैज्ञानिक रूप से समाज का दर्पण होता है।हमारे प्राचीन समाज संस्थापको ने,इतिहास निर्माताओ ने तथा समाज के सुचारू संचालन के लिए आदर्श व रीति रिवाज बनाने वालों ने पर्वो के रूप में जो परम्पराए, रीति रिवाज खानपान व्यवहार के आदर्श स्थापित किये है,उनके पीछे मानव समाज के चतुर्मुखी विकास की परिकल्पना रही है।पर्वो की प्रेरणा में सबसे मुख्य बात है सामुहिक भावना की।सबके साथ मिलकर आमोद मय वातावरण में पर्व मनाये जाते है।केवल पूजा मेले ठेले और प्रमाद व मिठाइयां खाना मात्र पर्वो का उद्देश्य नही है।मुनि ने दुःखी मन से कहा पर्वो की परंपरा के साथ धीरे धीरे रूढिया व गलत व्यवहार भी स्थापित हो गये है।वर्तमान जीवन मे जिनकी कोई उपयोगीता नही है।कुछ स्वार्थी तत्वों ने उनके साथ अपने व्यक्तिगत हित, स्वार्थ तथा रूढ़ मान्यताओ को भी इस प्रकार गड्ड मड्ड कर दिया है कि समूचे पर्व का रूप ही विकृत हो गया है।संत ने कहा पर्वो में जहाँ आमोद प्रमोद उल्लास का वातावरण रहा है।वही कुछ विशेष भावनाएं, कल्पना आकांक्षाये और इच्छाए भी जुड़ी हुई है।सुख व आरोग्य की कामना,वैभव प्राप्ति की अभिलाषा और उसके साथ पारिवारिक सामाजिक वातावरण में स्वच्छता सुंदरता नयापन और अभिनव आकर्षण पैदा करने की स्वाभाविक उत्कंठा भी झलक रही है।नवरात्रि पर्व में मानव मन की अनेक इच्छाये अपेक्षाएं अभिव्यक्त होती है।वहा अश्लीलता का कोई स्थान नही है।वाणी द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता है।उन्हें प्रकट कर देना गलत मानसिकता है।
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