सम्यक दर्शन आध्यात्मिकता की पहली सीढ़ी है- जिनेन्द्रमुनि मसा*
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*सम्यक दर्शन आध्यात्मिकता की पहली सीढ़ी है- जिनेन्द्रमुनि मसा*
कांतिलाल मांडोत
गोगुन्दा 5 अक्टूबर
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ उमरणा के स्थानक भवन में आयोजित सभा में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि समान भाव से संसार को देखने पर ही समता का अभ्युदय होता है।समता का भाव ही वास्तविक रूप में धर्म है।सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन और चारित्र ही आत्मा की उन्नति का गढ़ है।लेकिन जीवन उत्थान की पहली सीढ़ी है सम्यक दर्शन।जैसे एक लता को ऊपर उठने के लिए एक आलम्बन की आवश्यकता होती है।वैसे ही जैन धर्म मे आत्म उन्नति के लिए शास्त्र और संत हमारे प्रगति पथ के आलम्बन है।जिनके द्वारा सन्मार्ग पर चलकर ही जीवन की नैया को पार कर सकते है।समदृष्टि का भाव सदैव शांतिदायक होता है।माता पिता अपने बच्चो के प्रति जब समता भाव रखते है।तब जो धर्मात्मा होता है वह इस भाव से अलग क्यो होगा?आदमी का क्षेत्र व्यापक होने पर उसकी दृष्टि भी व्यापक हो जाती है।जिस व्यक्ति के जीवन मे सम्यक्त्व भाव की प्रतिष्ठा हो जाती है।उसके जीवन मे धर्म साकार होजाता है।मुनि नेकहा आज के समय मे जीव को सम्यक बनना बहुत आवश्यक है।जैन दर्शन में इसका अत्यधिक महत्व है।प्रवीण मुनि ने कहा मनुष्य के जीवन के जीवन में विचारो का बहुत बड़ा महत्व है।हमारे तत्ववेत्ताओं ने तो जीवन के साथ साथ आचार को भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया है।जिस प्रकार अनन्त आकाश में उड़ान भरने वाले पक्षी के लिए यह आवश्यक है कि उसके दोनों ही पंखों में उड़ान भरने की क्षमता हो,क्योकि एक पंख के बेकार होने पर आकाश की ऊंचाइया तो क्या वह पांच फीट ऊंची उड़ान भरने में असक्षम हो जाता है।मुनि ने कहा उसी प्रकार मनुष्य के जीवन मेऊंचाई प्राप्त करने हेतु उसके आचार और विचार के दोनों ही पंख बिलकुल ठीक होने जरूरी है।रितेश मुनि ने कहा विचारहीन मनुष्य कीचड़ में पैदा होने वाले कीटो से अधिक कुछ भी नही है।अंतर इतना ही है कि कीचड़ के कीट से मानव कीट कुछ बड़े कीट है।इस मानव भव को समय पर सँवारने की जरूरत है।उत्तम विचारो से स्वयं का प्रक्षालन करने की आवश्यकता है।जो स्वयं का प्रक्षालन कर लेता है वह फिर दुसरो का प्रक्षालन करना चाहता है।स्नान किया हुआ व्यक्ति कीचड़ में पांव डालने से हिचकिचाता है।मुनि ने कहा प्रत्येक मनुष्य शाश्वत सुख चाहता है।प्रभातमुनि ने कहा धर्म की पालना के लिए देह का महत्वपूर्ण स्थान है।इसलिए कहा जाता है जब तक देह है ,मानव को धर्म की साधना कर लेनी चाहिए।मनुष्य विवेकी और विचारशील प्राणी है।इस शरीर के लिए उसे किस प्रकार के आहार की आवश्यकता है,वह स्वयं सोच सकता है।जो लोग शारीरिक दृष्टि से कमजोर होते है,उनके मन मे नासमझ ये भाव भर देते है कि शरीर को बलिष्ठ बनाना है।मुनि ने कहा हवा और दवा तो देशानुकूल ही उत्तम रहती है।पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की औषधियों ने हमारे शरीर को इतना विषैला बना दिया है कि तीस वर्ष पहले दो गोली से बुखार उतर जाता था ,आज उससे पांच गुने वजन की गोली दिन में तीन तीन बार पांच दिन तक लेने पर ही असर दिखाई देता है।मुनि ने कहा जो व्यक्ति हिताहारी है और अल्पाहारी है,उसे किसी वैध से चिकित्सा करवाने की जरूरत नही है।वह स्वयं ही स्वयं का वैध है,चिकित्सक है।
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