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आत्म कल्याण के साथ सर्वकल्याण के पथ पर चले थे भगवान महावीर स्वामी*

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भगवान महावीर स्वामी की जन्म कल्याणक पर विशेष
*आत्म कल्याण के साथ सर्वकल्याण के पथ पर चले थे भगवान महावीर स्वामी*
आज अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्म जयंती मना रहे हैं। इसी चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को अनुत्तर योगी भगवान महावीर का कुण्डलपुर में महाराज सिद्धार्थ के घर-आँगन में पुण्यवती माता त्रिशला की कुक्षी से जन्म हुआ। भगवान महावीर के जन्म से पूर्व स्थितियाँ थीं, वे सचमुच अत्यन्त दयनीय थीं। हिंसा, असत्य, शोषण, जातिवाद, पंथवाद आदि के दुश्चक्रों से हर व्यक्ति आहत था। भगवान महावीर के अवतरण से आहत जन-मानस को पर्याप्त राहत मिली। वे धर्म के दैदीप्यमान दिवाकर के रूप में इस धरा पर उदित हुए। उन्होंने सम्पूर्ण संसार में इस तरह का दिव्य आलोक प्रदान किया कि अज्ञान और अविवेक का जो चतुर्दिक अंधकार परिव्याप्त था, वह समाप्त हो गया। वातावरण में एक नई चेतना का संचार हुआ। महावीर सचमुच महावीर थे। उनकी करूणा अथाह थी। हम उनकी जितनी भी महिमा गाएँ, वह कम है।

*संयम-साधना के पथ पर*

भगवान महावीर बचपन से ही अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। वैसे भी तीर्थकर होने वाली महान आत्मा अपने साथ तीन ज्ञान लेकर है।
सामान्यतः बचपन में बच्चे अपने समय को यूं ही खेल-कूद में व्यतीत कर देते हैं, पर महावीर का शैशवकाल अत्यन्त रचनात्मक था। वे सतत लोक- मंगल के उदात्त चिन्तन में संलग्न रहते थे। उनके आस-पास विराट वैभव अठखेलियाँ रहा था, पर वे कभी भी उसमें आसक्त नहीं बने । अपने माता-पिता, भ्राता आदि परिजनों की संतुष्टि के लिए वे अमुक समय तक संसार में रहे, पर उनका मन वातावरण को सौम्यता प्रदान करने के लिए छटपटाता रहा।तीस वर्ष की युवावस्था में वे संयम-साधना के अग्निपथ पर चल पड़े। होते ही उन्होंने कठोरतम तपः साधना से अपने आपको संलग्न कर लिया। उनकी तप-साधना उच्च कोटि की थी। कदम-कदम पर उनके समक्ष अनेक उपसर्ग उपस्थित हुए, पर वे एक पल के लिए भी कभी कंपित एवं विचलित नहीं हुए। उन्होंने सब कुछ समभाव से सहा। लगाव और टकराव मन को छू तक नहीं सके। साढ़े बारह वर्ष तक मौनपूर्वक वे पूर्णतः तप एवं आत्मचिंतन में लीन रहे। जब उन्हें केवल्य का आलोक प्राप्त हो गया तो उन्होंने अपनी दिव्य देशना प्रदान की, जिससे पापों और पाखण्डों के मजबूत किले ध्वस्त होने लगे।
*अद्भुत क्रान्ति*
भगवान महावीर के जन्म से पूर्व की जो स्थितियाँ थीं, वे एकदम विषम थीं। भगवान महावीर एक क्रांतद्रष्टा रूप में अवतरित हुए। कदम-कदम पर हो रहे जीवन मूल्यों के अवमूल्यन से उनका मन उद्वेलित एवं आंदोलित हुए बिना नहीं रह सका। धर्म के नाम पर न केवल पशुओं की, अपितु मनुष्यों की बलि, नारियों को उत्पीड़न, मानव मानव के बीच में भेदभाव की दीवारें, परिग्रही बनकर शोषण, छूआछूत, घृणा, आतंक और न जाने क्या-क्या अकरणीय नहीं हो रहा था, उस युग में। महावीर करूणा के देवता थे। वे इस निर्ममता और निर्दयता को भला, किस तरह सहन कर सकते थे? प्राणीमात्र की पीड़ा उनकी अपनी पीड़ा थी। उन्होंने स्वयं को कष्टों की आग में झोंककर भी, पीड़ित मानवता को प्रसन्नता प्रदान की।

*भगवान महावीर के द्वारा निरूपित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य*

चेतना को भ्रम से मुक्त बनने का एक स्वर्णिम अवसर मिला। वे आलौकिक प्रकाश स्तम्भ थे। आत्मकल्याण के साथ वे सर्वकल्याण के दृष्टिकोण के साथ चले। भटकी हुई मानवता को उन्होंने स्पष्ट इंगित दिये। भँवरजाल में फँस जाने को आतुर जगती को दिशा-परिवर्तन की समझ दी। संघर्षपूर्ण लहरों की आतुरता से अपने को बचा लेने के लिए आवश्यक बोध दिया। महावीर एक सुलझाव थे। प्रश्नों और समस्याओं के घेरे में उलझे मानव मात्र को उन्होंने उबारा। सप्रमाण समाधान प्रस्तुत किये। समाधान को नये आयाम दिये। उनके समाधानों में सहजता थी। उनके समाधानों से जन-जीवन में सौहार्द का समावेश हुआ। इससे सारी विकृतियाँ अर्थहीन हो गई। मनुष्य, मानवता की श्रेष्ठतम अनुकृति से विभूषित हो गया।

*वर्तमान संदर्भ मे*
भगवान महावीर की जितनी आवश्यकता आज से छब्बीसों साल पहले थी, उससे वर्तमान युग में भी है। भगवान महावीर अष्टकर्मों का क्षय करके सिद्धावस्था प्राप्त कर चुके हैं और जैनदर्शन के अनुसार जो आत्मा कर्मों को निःशेष करके सिद्ध-बुद्ध हो जाता है, उसका इस संसार में पुनः आगमन नहीं होता ।हमारे कई भावुक भक्तजन अपने भाषणों एवं रचनाओं के माध्यम से कई बार एक स्वर समुच्चारित किया करते हैं कि भगवान महावीर आप पुनः कृपा करके इस धरती पर आओ और व्याप्त विषमताओं को दूर करने के अपनी का अमृत बरसाओ। यह जो अभिव्यक्ति है, भावनाशील की अभिव्यक्ति है। भगवान महावीर तो अब इस धरती पर आने से रहे। हाँ, निराश व हताश होने की आवश्यकता नहीं है। भगवान महावीर ने सही पर उनकी जो कल्याणी वाणी है, वह तो आज हमारे समक्ष विद्यमान है। हमें उनकी वाणी का तत्परतापूर्वक अनुपालन करना चाहिए।भगवान महावीर के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को यदि आज जीवन के व्यवहार में स्थान दिया जाता है तो यह सुनिश्चित है कि सम्पूर्ण संसार का कायाकल्प हो सकता है। उनके सिद्धान्त किसी वर्ग विशेष अथवा काल
विशेष में आबद्ध नहीं हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की उपादेयता सार्वकालिक एवं सार्वभौम है। केवल भगवान महावीर का जयनाद करने मात्र से हमें शांति प्राप्त हो जायेगी यह संभव नहीं। आज हमें भगवान महावीर की नहीं, अपितु उनके उपदेशों को जीवन में सत्कार देने की आवश्यकता है। सत्कार का अर्थ जयकार नहीं, अपितु आचरण के रूप में उनके उपदेशों का जीवन-व्यवहार में स्वीकार करना है।
यह कटु सत्य है कि आज महावीर को हमने केवल अपनी प्रतिष्ठा का आधार बना लिया है। हम जैन हैं, जैन कुल में जन्म लिया है इसलिए हम महावीर से जुड़े विशेष प्रसंगों पर उनका चंद घंटों तक एक शोर- शराबे के साथ जयनादों, जुलूसों एवं समारोहों के बीच में स्मरण कर लेते हैं और पुनः उसी स्वार्थी वातावरण में अपने आपको सम्मिलित कर लेते हैं। कहने को हम भगवान महावीर के भक्त हैं, पर क्या कभी हम विचार करते हैं कि भक्त का रहन-सहन और जीवन कैसा होता है? महावीर ने क्या कहा और हम क्या कर रहे हैं? यदि गहराई से हमने इस संबंध में विचार किया तो हमें अपनी अपनी भूल का अहसास हुए बिना नहीं रहेगा। छोटी-छोटी अर्थहीन बातों को लेकर हमारे आपसी संघर्ष, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, घेरों की पुष्टि, गुणपरक दृष्टिकोण का अभाव आदि कई ऐसी बातें हैं, जो शोभास्पद नहीं है।हमें महावीर को निकटता से समझने का प्रयत्न करना चाहिए। मेरी दृष्टि में महावीर जयंती का सर्वाधिक ज्वलन्त प्रश्न है, हमारे जीवन में अहिंसा मंडित हो तथा विचारों में अनेकांत प्रतिबिम्बित हो। आचार में अहिंसा और विचार में अनेकांत का समावेश ये दोनों बिन्दु जीवन की ऊँचाइयों को छूने की दृष्टि से हमें क्षितिज के उस पार तक ले जा सकते हैं, जहाँ आध्यात्मिक ऊँचाई का चरम छुआ जा सकता है।
अहिंसा मूलक चिन्तन हमारा केन्द्रीय लक्ष्य होना चाहिए। मानसिक चिंतन अहिंसा और हिंसा दोनों का केन्द्र बिन्दु है। जैन कथा साहित्य में से एक ही उदाहरण द्वारा हम इस तथ्य को हृदयंगम कर सकते हैं। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि मनतः नरक योग्य चिंतन की अंधेरी गुहा तक पहुँच गये थे और मनः चिन्तन के द्वारा ही स्वर्ग तक ही यात्रा उन्होंने सम्पन्न कर ली थी। यह सोचने का तरीका है। इसीलिए हमें महावीर ने अनेकांत का अमृत प्रदान किया था। उनका संदेश था कि हम सच को तब तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक अनेकांत की दृष्टि को नहीं अपनाते। सच ही स्पर्शदीक्षा अनेकांत देता है। अन्य व्यक्ति जो एक विचार लेकर खड़ा है, वह तुम्हें मित्र तभी दिखलाई देगा, जब तुम उसे अनेकांत की आँख से देखना प्रारम्भ करोगे।
हमारे विचारों में जब तक अनेकांत नहीं आएगा, तब तक तुम्हें शत्रु- ही-शत्रु नजर आते रहेंगे। शत्रुओं से घिरा व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से भी पराजित होगा और लौकिक दृष्टि से मित्रों के बीच खड़ा व्यक्ति अभय होता है। अभय.
वही हो सकता है, जिसके सामने कोई शत्रु नहीं हो। जो अग-जग को अनेकांत दृष्टि से देखता है, शत्रु उसके मित्र हो सकते हैं, अनेकांत की आँख ही हमारा दिव्य चक्षु है। यह आँख कभी भी बंद नहीं होनी चाहिए।
भगवान महावीर की जन्म जयंती के पावन प्रसंग को मैं जागरण वेला के रूप में देखता हूँ। हम इस पावन प्रसंग को एक दिवसीय उत्सव आयोजन तक सीमित न अपितु इस अवसर पर गहराई के साथ अपने आपका अवलोकन करें एवं कुछ विशिष्टताओं से स्वयं को समृद्ध बनाने का सत्संकल्प अपने भीतर में संजोए। महावीर का मार्ग ही एक ऐसा मार्ग है, जिस पर बढ़ते हुए हम सुख और शांति को प्राप्त कर सकते हैं।
यदि हम महावीर के पावन सिद्धांतों से स्वयं को संबधित करते हैं तो मैं समझता हूँ कि हमारा जयंती-आयोजन में शरीक होना सार्थक हो सकता है, अन्यथा हर वर्ष की भाँति महावीर जयंती का एक दिन निश्चित है, वह आएगा। समय और हम उन्नयन की दृष्टि से वहीं के वहीं खड़े दिखलाई देंगे। महावीर के सिद्धांतों में अद्भुत क्षमता है, यदि इनका उपयोग-प्रयोग किया जाए तो यह निश्चित है कि वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं विश्व की सभी समस्याओं का सुगमता से समाधान हो सकता है।
अहिंसा मूलक चिन्तन हमारा केन्द्रीय लक्ष्य होना चाहिए। मानसिक चिंतन अहिंसा और हिंसा दोनों का केन्द्र बिन्दु है। जैन कथा साहित्य में से एक ही उदाहरण द्वारा हम इस तथ्य को हृदयंगम कर सकते हैं। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि मनतः नरक योग्य चिंतन की अंधेरी गुहा तक पहुँच गये थे और मनः चिन्तन के द्वारा ही स्वर्ग तक ही यात्रा उन्होंने सम्पन्न कर ली थी। यह सोचने का तरीका है। इसीलिए हमें महावीर ने अनेकांत का अमृत प्रदान किया था। उनका संदेश था कि हम सच को तब तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक अनेकांत की दृष्टि को नहीं अपनाते। सच ही स्पर्शदीक्षा अनेकांत दे है। अन्य व्यक्ति जो एक विचार लेकर खड़ा है, वह तुम्हें मित्र तभी दिखलाई देगा, जब तुम उसे अनेकांत की आँख से देखना प्रारम्भ करेंगे।
जय महावीर
                          

                                                             *कांतिलाल मांडोत*

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