जन्म वांचन के उपलक्ष्य में देश मे भगवान महावीर की सजाई आंगी, स्थानक,देरासर में उत्साहवर्धक माहौल*

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पर्युषण के आठ दिन
*जन्म वांचन के उपलक्ष्य में देश मे भगवान महावीर की सजाई आंगी, स्थानक,देरासर में उत्साहवर्धक माहौल*
भगवान महावीर के जन्म वांचन के पांचवे दिन जैन मंदिरों में आंगी सजाई गई।जिनालय गुलजार हुए।उपाश्रय और देरासर में भगवान महावीर के जन्म वांचन का लाभ लेकर भक्त श्रद्धाभिभूत हो गए।महावीर की जन्म वांचन पवित्र प्रसंग पर भगवान की विशिष्ट परम्परा आज भी प्रासंगिक है।वह जीवात्मा तो धन्य है ही, जिसने मनुष्य रूप में जन्म लिया है। पर वह मनुष्यात्मा तो धन्य से भी धन्य है, जिसने आर्यक्षेत्र में जन्म लिया है। यह आर्यक्षेत्र जिसे हम भारत नाम से सम्बोन्धित करते हैं, सचमुच ही पुण्य-भूमि है। इतिहास और साहित्य का अध्ययन करें तो हम देखेंगे कि जितने महापुरुष इस क्षेत्र में हुए हैं, उतने अन्य क्षेत्रों में नहीं हुए। यह तीर्थंकरों की जन्म भूमि है तो अवतारों की कर्म-भूमि है। इस धरती पर रमण करने, विचरण करने के लिए तो पुण्यशाली आत्मा भी मनुष्य जन्म लेने को लालायित रहते हैं। इसी पुण्यधरा पर प्रभु महावीर का जन्म हुआ। जन-मन के श्रद्धा केन्द्र दलित-पीड़ित के उद्धारक अहिंसा के जाज्वल्यमान नक्षत्र अपरिग्रह के आराधक और अनेकान्तवाद के प्रचेता-प्रणेता महावीर का नाम आते ही हृदय में आनन्द की ऊर्मियाँ उठने लगती हैं। जिस क्षेत्र में हम रह रहे हैं, उसी क्षेत्र पर वह महान् आत्मा परमात्मा बनने और बनाने तथा विश्व का कल्याण करने आई थी। शास्त्रकारों ने “दुर्लभं भारते जन्मः” की बात कही है। भारत धर्म-भूमि है, यहाँ एक नहीं, अनेक धर्मों की परम्परा रही है। हर युग में अनेक चिन्तक एवं विचारक हुए हैं। उन्होंने अपने अकाट्य तर्क एवं दर्शन से लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। विचारों से प्रभावित होकर शिष्य-परम्परा चलती रही, वही धर्म उत्तरोत्तर अभिवृद्धि की ओर अग्रसर होता रहा।
*महावीर तो आज भी प्रासंगिक हैं*
भगवान महावीर की परम्परा तो अति प्राचीन है। ऋषभदेव से चली जैन धर्म कीरश्मि महावीर तक आते-आते ज्योति बन गई। वे इस काल के अन्तिम तीर्थंकरकहलाये। उनके सिद्धान्त आज भी चिन्तकों को सोचने के लिए विवश करते हैं। छब्बीसों वर्ष पहले महावीर ने कैसा अद्भुत सन्देश दिया। उस समय चाहे इन सिद्धान्तोंकी आवश्यकता रही हो या नहीं, लेकिन आज के युग में महावीर और उनकेसिद्धान्तों का सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक महत्त्व है। अपने अक्षुण्ण और अबाधितसिद्धान्तों के रूप में महावीर आज भी हमारे बीच रहते हैं। अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के सिद्धांतों की परंपरा बताते है।सब प्राणियों के प्रति मैत्री एवं मंगल की कामना करते हैं। धर्म मंगलकारक है, लेकिन धर्मानुयायी महापुरुषों के बताये सिद्धान्तों की अवहेलना करना शुरू कर दे तो फिर किसको दोष दिया जायेगा ? समाज में जब तक विषमता है, तब तक वहां शान्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। एक तरफ गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ और दूसरी तरफ झुग्गी-झोंपड़ियाँ हैं। झुग्गी-झोंपड़ी से उठता धुँआ यदि अट्टालिका सहन न करके झौंपड़ी को जलाने का प्रयास करेगा तो क्रान्ति हो जायेगी। भगवान महावीर ने शान्ति के लिए ही अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया है। समाज में एक भूख से बिलबिलाए और दूसरा अधिक खाकर उल्टियाँ करे तो इस स्थिति पर आप क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कुछ लोग जैसे-तैसे जीवन के दिन पूरे करके उम्र को पूरी कर रहे हैं। जीवन-यापन की थोड़ी-बहुत सामग्री प्रेम और शान्ति से मिल जाये, वही उनके लिए पर्याप्त है। उन्हें अधिक की लालसा नहीं हैं। अधिक धन-वैभव से ही प्रेम रहता हो, यह आवश्यक नहीं है।
*महावीर का बँटवारा*
महावीर इसी धरती पर पैदा हुए। यह धरती आपकी, हमारी सबकी है। महावीर को विभिन्न सम्प्रदायों के टुकड़ों में हमने बाँट दिया है। उनके काल में न तो दिगम्बर न श्वेताम्बर, न मन्दिरमार्गी थे, न स्थानकवासी। अरे, साधना में कोई आग्रह नहीं होना चाहिए। वस्त्र पहनने और न पहनने से कोई फर्क नहीं पड़ता। साधक की साधना ही महत्त्व रखती है। वास्तव में महावीर किसी व्यक्ति या सम्प्रदाय विशेष के नहीं थे। वे जिन थे, जैन नहीं; जैन तो हम बन गये हैं। विडम्बना यह है कि हम जिन भगवान और जिनवाणी को भूलकर जैन बने हैं। यह सब अनेकान्तवाद की दृष्टि से हटने का परिणाम है। एकान्तवादी बनने के कारण महावीर के उपासकों में ही दूरियाँ हो गई हैं। अब समय आ गया है कि मिल-जुलकर हम एकता के प्रयास करें। धर्मोपासकों के मध्य दीवारे खड़ी हो गई हैं, उसका कुछ भी कारण रहा हो, अब वे दीवारें गिरा देना ही युग-धर्म है।
दुनियाँ की निगाहें भारत पर टिकी हैं। महावीर के शाश्वत सिद्धान्तों से फिर नया आलोक मिलता है। फिर किसी गांधी को अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकान्तवाद की दृष्टि की आवश्यकता होगी। यदि हम एक-दूसरे की टाँग खींचते रहे तो इतिहास हमें कभी क्षमा नहीं करेगा। उपासक ही धर्म के विनाशक कहलायेंगे।
*विकृति का आवरण*
भगवान महावीर के उज्ज्वल सिद्धान्तों में कहीं कोई भी न्यूनता नहीं थी। वे तो पूर्ण तौर पर पारदर्शी थे। एक जरा-सा भी विकार या छिद्र उसमें रह जाये यह संभावना ही नहीं है। विकार तो मानव की दुर्बुद्धि है, उसने उनके अनेक कथनों को सुविधा के अनुसार मोड़ लिया अथवा उन्होंने उनके नाम का झण्डा हाथ में उठा लिया और बदले में उनके सिद्धान्तों को अपने ही पैरों तले कुचल दिया। प्रस्तुत दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट होगी कि किस प्रकार मनुष्य ने विकृति को ओढ़कर अपने को प्रभु महावीर के वरदानों से विलग कर लिया। कोयले में अग्नि है पर वह गुप्त है। प्रदीप्त अग्नि के सम्पर्क से वह जलता है, परन्तु पानी में भीगा कोयला सुलगता नहीं । पानी का अंश पृथक् हो जाने पर ही वह सुलग सकता है। जब हमारी निर्मल आत्मा में साधु-सन्तों का समागम होने पर ज्योति उभरती है तभी भीतर के गुण बाहर प्रकट हो पाते हैं।
जिस प्रकार भीगा हुआ कोयला सुलग नहीं पाता, उसी प्रकार कर्ममल से युक्त आत्मा परमात्म-पद नहीं पा सकती। जब तक कर्ममल भरा है यह सम्भव ही नहीं है। जिस प्रकार सूर्य के ताप से कोयले में रहा जल खत्म हो जाता है उसी प्रकार तप के ताप कर्ममल विनष्ट हो जाते हैं और परमात्म-पद पाने की राह खुल जाती है।
यही संकल्प लें कि आप आचरण में पूर्ण रूप से विशुद्ध, नैतिक, धर्ममय रहेंगे तो निश्चय आपका अनुकरण होगा।
उस युग में अधर्म ही धर्म था। संस्कृति का स्थान विकृति ने ले लिया था। नारी का सम्मान नहीं था, अपितु उसका घोर असम्मान था। उसे भेड़-बकरी की तरह और खरीदा जाता था। चम्पा की राजकुमारी वसुमती पहले एक वेश्या को बेची गई फिर उसे एक श्रेष्ठी
धनावह ने वेश्या से खरीद लिया। श्रेष्ठी की पत्नी भूला ने उसके पैरों में बेड़ी डाली और तलघर में बन्द कर दिया। महावीर ने छह महीने तक आहार का त्याग समाज को दृष्टि देने के लिए किया।सबकी आँखें खुलीं। राजा शतानीक और रानी मृगावती की आँखें खुलीं। समाज त्राहि-त्राहि कर उठा। वह राजकुमारी चन्दना कहलाई । उसकी बेड़ियाँ तो कटीं, पर महावीर ने उसे एक समर्थ साधन धर्म का दिया, जिससे वह कर्म के बन्धनों को काट सकी. वह जन्म-मरण से मुक्त होकर नारी जगत् को एक दिशा दे गई। नारी जागरण
का जैसा बिगुल महावीर ने बजाया, कदाचित् किसी और ने बजाया हो।
उनके युग में सभी को मुक्त होने का अधिकार नहीं था। यज्ञों में बलि देने को धर्म माना जाता था। कैसा भयावह वातावरण था महावीर के युग में। चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा था। मानो लोग दृष्टिहीन थे। राजा प्रजा को उचित अनुकरण नहीं दे पा रहे थे। राजा प्रजा दोनों की आँखों के सामने मोह और मिथ्यात्व का मोटा परदा था। परदे के पार देखने की सामर्थ्य किसी में नहीं थी। परदे को हटाये बिना एक का भी उदय सम्भव नहीं था, फिर सर्वोदय की बात तो बहुत दूर थी।
कहा जाता है- प्राचीन समय में रात्रि के प्रथम प्रहर में साधु वर्ग सामूहिक रूप में कल्पसूत्र के समाचारी खण्ड का वाचन करते थे। इससे अपने नियम व कल्पों, मर्यादा, गमनागमन, केशलोच, क्षमापना आदि सभी विषयों पर विशद ज्ञान हो जाता और उसके अनुसार यदि कल्प में कहीं कोई दोष लगा हो तो जागरूकता आ जाती थी।फिर भगवान महावीर निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद आनन्दपुर नगर में ध्रुवसेन नाम का राजा हुआ। वह जिनधर्मानुयायी श्रावक था, पर्युषण के दिनों में ही उसका इकलौता पुत्र मर गया। स्वाभाविक ही था राजा शोक में डूब गया। पूरे राज्य में उदासी और शोक का वातावरण छा गया। इधर पर्युषण चल रहा था। लोगों में धार्मिक उत्साह था। उधर राज्य में शोक का वातावरण। उस समय एक विद्वान् ने आचार्य को राजा के समक्ष कल्पसूत्र का वाचन कर शोक निवृत्ति की प्रेरणा दी। अपने आराध्य पुरुषों का रोचक जीवन-चरित्र सुनने से सभी में धर्मोत्साह जगा । वातावरण बदल गया। शोक की जगह धार्मिक उत्साह और श्रद्धा का वातावरण बन गया। राजा को भी यह उपक्रम अच्छा लगा और श्रावक वर्ग को भी। इस कारण पर्युषण में प्रतिवर्ष कल्पसूत्र का सामूहिक वाचन करने की एक परम्परा चल पड़ी।
इस को पुष्ट करने वाले भी कुछ कारण थे। उस समय में वैदिक-परम्परा में चातुर्मास काल में भागवत, महाभारत, रामायण आदि के सप्ताहभर सामूहिक कथा वाचन की परम्परा चल रही थी। वे प्राचीन कथाएँ बड़ी रसीली भाषा-शैली में होने के कारण लोगों का आकर्षण उधर हो रहा था। बौद्ध परम्परा में भी तथागत बुद्ध व बोधिसत्वों के जीवन-चरित की रोचक कथाएँ सुनाई जाती थीं। जैन-परम्परा में ऐसी कोई प्रथा नहीं थी। कल्पसूत्र का वाचन जब हुआ तो लोगों को लगा यह सूत्र भागवत आदि का स्थान ले सकता है। यह उतना ही रुचिकर, ज्ञानवर्द्धक और रसप्रद है। फिर समाज को अपने इतिहास का गौरव भी होता है। इतिहास ही समाज में प्राण फूँकता है। कहावत है जिस राष्ट्र का इतिहास नहीं, वह राष्ट्र ही समाप्त हो जाता है। मनुष्य का यह सरल मनोविज्ञान है कि वह अपने श्रद्धेय पूर्व पुरुषों का गौरव गान सुनकर उत्साहित होता है।
कांतिलाल मांडोत

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