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करुणाविहीन मानव मिट्टी का ढेर एवं ज्योतिविहीन दीपक है-जिनेन्द्रमुनि मसा*

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*करुणाविहीन मानव मिट्टी का ढेर एवं ज्योतिविहीन दीपक है-जिनेन्द्रमुनि मसा*

कांतिलाल मांडोत

गोगुन्दा 7 अक्टूबर
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ महावीर जैन गोशाला उमरणा के स्थानक भवन में जिनेन्द्रमुनि मसा ने कहा कि जिस ह्दय में करुणा है,वही मानवता की सच्ची कसौटी है। जीवन मे करूणा का रंग भरे बिना कोई आनन्द नही है।सच्चा मानव वही है जो मानवता के प्रति करुणा का दीप प्रज्वलित रखता है।क्रूरता जीवन का कलंक है तो करुणा जीवन का माधुर्य है।एक अंधकार है तो दूसरा प्रकाश ।मुनि ने कहा ईर्ष्या का परिणाम बहुत भयंकर होता है।जिसके ह्दय में करुणा नही है,वह किसी का भला सोच ही नही सकता है।जैन मुनि ने कहा करुणा उपदेश नही बल्कि आचरण चाहती है।धर्म को ह्दय में उतारने से ही मानवता का कल्याण सम्भव है। किसी दुःखी एवं पीड़ित को देखकर हमारा ह्दय उसके दुःख को दूर करने की भावना जगाता है,वह करुणा है।किसी क्षुधा पीडित को देखकर उसे रोटी देने की इच्छा उतपन्न होती है,वह करुणा है।संत ने भारपूर्वक कहा कि सम्पूर्ण मानवता को सूखी बनाने हेतु हमारा मन तरंगायित रहता है,वह करुणा है।यही कारण है कि राम ,कृष्ण महावीर को करुणा का सागर कहा गया है।वे सम्पूर्ण विश्वं के प्रति कृपालु रहे।किसी का भी दुःख उनसे देखा नही गया।उनके सारे प्रयत्न मानव कल्याण के लिए हुए एसलिये वे करुणा के पुंज थे।वे संसार मे मानव बनकर आए और महामानव भगवान के रूप में जाने गये।प्रवीण मुनि ने कहा कि आज आपसी स्नेह एवं सहयोग की सबसे बडी जरूरत है।दर्शन और धर्म की ऊंची ऊंची बाते करने वाले को सहयोग धर्म को नही भूलना चाहिए।परिवार का सामंजस्य सहयोग पर ही टिका होता है।रितेश मुनि ने कहा कर्मबन्धन का मूल कारण राग द्वेष है।राग द्वेष के वशीभूत व्यक्ति लालसाओं और कामनाओ का शिकार हो जाता है।अर्थात लालसाएं और कामनाएं व्यक्ति को बांधे रखती है।इसमें बंधा या झकडा व्यक्ति अपने को परतन्त्र अनुभव करता है।उसका स्वभाव परमुखापेक्षी बन जाता है।मुनि ने कहा स्वार्थ की स्थिति ही ऐसी होती है कि जो दो दोस्त जो कल मरने मिटने के लिए तैयार रहते थे।आज वे ही एक दूसरे के जीवन को बर्बाद करने पर तुले हुए है।स्वार्थ की अंधी गलियों में श्वास प्रश्वास लेने वालों की यही स्थिति होती है।प्रभातमुनि ने अपने प्रवचन माला में कहा कि ज्ञान और क्रिया में जब तक सामंजस्य नही होता,तब तक कर्मबन्धन से मुक्ति सम्भव नही है।ज्ञान के साथ क्रिया एवं क्रिया के साथ नितांत अनिवार्य है।ज्ञान के द्वारा हम वस्तु के स्वरूप को जानते है और क्रिया के द्वारा हम उसे प्राप्त करते है।सम्यग्ज्ञान के अभाव में व्यक्ति स्व स्वरूप को भूल जाता है।

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