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पतझड़ के बाद बसत ऋतु का आगमन नव निर्माण का प्रतीक*

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*पतझड़ के बाद बसत ऋतु का आगमन नव निर्माण का प्रतीक*
धर्म, इतिहास और संस्कृति-तीनों मनुष्य जीवन के चित्र में हरे, लाल, पीले रंगों की तरह गहरे घुले-मिले तत्त्व हैं, यद्यपि इनमें तीनों के रंग अलग-अलग हैं। फिर भी इनकी पहचान करने में हम भूल कर सकते हैं, परन्तु पहचान करना कठिन नहीं है।
धर्म वह शाश्वत तत्त्व है, जो अनादिकाल से मनुष्य के जीवन में आनन्द, सुख और शान्ति का कल्पवृक्ष बनकर लहरा रहा है। धर्म मानव की आन्तरिक चेतना की उपज है, आन्तरिक चेतना से ही उसका सीधा सम्बन्ध है। दया, करुणा, प्रेम, सद्भाव एक-दूसरे के प्रति निःस्वार्थ समर्पण, भौतिक इच्छाओं पर विवेक का अंकुश, सद्-असद् का विवेक और उसके अनुरूप आचरण-यह सब धर्म का रूप है। धर्म हमारी चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाता है, धर्म से ही मन में विराटता और भावों में पवित्रता की प्राणधारा संचरित होती है।
इतिहास एक बीता हुआ सत्य है, भोगा हुआ अतीत है। मनुष्य ने भला-बुरा, सद्-असद् जो कुछ भी किया है, प्रेम और युद्ध, निर्माण और विध्वंस, उद्दाम इच्छाओं का खुला खेल अथवा किसी की रक्षा के लिए अपना बलिदान यह सब इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। इतिहास का रंग लाल और पीला है। जो मानव के द्वारा खेले गये खूनी खेल और किये गये निर्माणों का प्रतीक है। इतिहास मनुष्य की मूर्खता और समझदारी का जीता-जागता दस्तावेज होता है। वह दर्पण है, जिसमें मानव जाति का अतीत प्रतिबिम्बित है।
*संस्कृति जीवन का अंग है*
संस्कृति हरे, पीले, लाल, सफेद फूलों का एक गुलदस्ता है। यह मनुष्य की उस जीवन धारा को सूचित करती है, जिसमें वह बह रहा है, बहता रहा है। उसकी मानसिक रुचियाँ, सुख-दुःख की संवेदनाएँ,खेलकूद आमोद-प्रमोद की अभिव्यक्तियाँ, अतीत के प्रति जुड़ा अनुराग और भविष्य के प्रति जगे सपने, आशाएँ, अपेक्षाएँ जहाँ, जिस रूप में अभिव्यक्त होती हैं, वह है संस्कृति।
संस्कृति एक प्रवाह है, जो निरन्तर गतिशील भी है, परिवर्तनशील भी है। देश, काल, समाज की परिस्थितियों के अनुसार संस्कृति बदलती रहती है। वातावरण, सम्पर्क और वैचारिक आदान-प्रदान से भी संस्कृति में संस्कार या विकार आते रहते हैं। संस्कृति की तस्वीर में इतिहास और धर्म दोनों ही अपना-अपना रंग लिए रहते हैं। इसलिए संस्कृति कभी सभ्यता, कभी रीति-रिवाजों और कभी पर्व-त्यौहारों के रूप में भी प्रकट होती रहती है।
भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है कि उसमें समाज और धर्म का प्रतिविम्ब एक साथ समाया रहता है। संस्कृति हमेशा ही मानव सभ्यता की विकास और विराटता की ओर ले जाती है। इसलिए हम संस्कृति को जीवन से अलग नहीं कर सकते। मानव जीवन का एक पहलू धर्म से जुड़ा है तो दूसरा पहलू संस्कृति से जुड़ा हुआ है। पर्व, त्यौहार, उत्सव आदि सभी हमारी सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं। संस्कृति के पवित्र सन्देशों को घर-घर और जन-जन तक पहुँचाने वाले दूत हैं-पर्व।
आज वसन्त पंचमी का पर्व है, चारों ओर नये पीले केसरिया कपड़े नजर आ रहे हैं। लाउडस्पीकरों पर चुन गूँज रही है मेरा रंग दे बसन्ती चोला। खेत-खलिहान सरसों के पीले-पीले फूलों की शोभा लिए दूर-दूर तक चमक रहे हैं। ऐसा लग रहा है, मानो प्रकृति ने फूलों के बहाने खेतों में सोना फैला दिया है और खेतों की स्वर्णिम आभा देखकर किसान का कोमल मन नाच रहा है। किसान के पसीने की बूँदें ही मानो स्वर्ण-फूल बनकर धरती के अंचल में दमक रही हैं। वसन्त ऋतु की यह सुहावनी छटा कुछ अलौकिक है।बडी जीवनदायिनी, आनन्द की वर्षा करने वाली और मन को प्रफुल्लता देने वाली है।
*वसंत निर्माण का प्रतीक है*
पतझड़ के बाद बसन्त ऋतु का आगमन नव-निर्माण का प्रतीक है। विनाश के बाद नये विकास की सूचना लेकर वसन्त ऋतु आती है। जर्जर, मृतप्रायः प्राकृतिक वनस्पतियों में नव-जीवन अंगड़ाई लेने लगता है। सूखे वृक्षों पर नई-नई कोपलें लगती हैं। मुर्झाये पौधों पर जैसे जीवन खेलने लगता है। सर्वत्र उल्लास उमड़ रहा है। इस अलौकिक शोभा के कारण ही वसन्त ऋतु को सब ऋतुओं से श्रेष्ठ और ऋतुराज कहा जाता है।
    

                          कांतिलाल मांडोत*

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