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*अक्षय तृतीया अखंडता का प्रतिक है,तप मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम*

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*आखातीज पर विशेष
*अक्षय तृतीया अखंडता का प्रतिक है,तप मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम*

आज वैशाख शुक्ल तृतीया है। इस तृतीया को अक्षय तृतीया अथवा आखातीज के रूप में जाना जाता है। इस तृतीया का अनूठा महत्व है। यह तृतीया आज तक खंडित नहीं हुई। अक्षय तृतीया अखंडता का प्रतीक है। अखंडता की शक्ति महान है। विभक्त और विभाजित होकर जीना वस्तुतः कोई जीना नहीं है। अखण्डता और एकरूपता का आनंद कुछ अलग ही होता है। उस परिवार, समाज और राष्ट्र की स्थिति एकदम बदतर बन जाती है, जहाँ अखंडता और एकरूपता का अभाव होता है।जिनमें अखंडता नहीं है, वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। जो खण्ड-खण्ड रूप में जीवन जीते हैं, उन्हें कदम- कदम पर परेशानी का अनुभव करना पड़ता है। जीवन में यदि यश, सुख और सफलता प्राप्त करने की अभीप्सा है तो अखण्डता के महत्व को ठीक तरह से समझिए और अखण्ड बनकर जीवन जीने का अभ्यास कीजिए ।अक्षय तृतीया का ज्योतिष की दृष्टि में जो महत्व है, वह भी उत्कृष्ट इस तिथि के दिन को स्वतः ही विशिष्ट माना जाता है। आज की महत्ता के लिए किसी भी पंडित या ज्योतिर्विद से पूछने की आवश्यकता नहीं है। आज बिन पूछा श्रेष्ठ मुहूर्त माना जाता है।

इस अक्षय तृतीया के साथ प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का गहरा सम्बन्ध है। भगवान ऋषभदेव की सुदीर्घ तपः साधना का पारणक इसी दिन सम्पन्न हुआ। तप, जीवन की ऐसी दिव्यता है, जो मनुष्य को उत्स प्रदान करती है। ऊँचाइ‌यों की ओर बढ़ना मनुष्य को प्रिय है। तप, मनुष्य के कर्मो की निर्जरा करता है, उसे विकारों से परे करता है। तप के माध्यम से अध्यात्म की उचतम ऊँचाईयों का स्पर्श किया जाता है। तप ही वह उपक्रम है, जो जीवन को धर्ममय बनाता है। जिसके जीवन में धर्म होता है, वह जीवन में सब कुछ पा लेता है। धर्म विहीन जीवन एक अभिशाप के समान है। तप मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम है।
तप आत्मशुद्धि का स्वरूप है, पुरुषार्थ है। तप की महिमा अचिन्त्य अनिर्वचनीय है। तपस्वी के चरणों में देवता भी वन्दन अभिनन्दन करते हैं। तप से सारी ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ सुलभ हैं। तपः साधना आत्मबल के बिना संभव नहीं है। तप की अग्नि में स्वयं को तपाना बहुत ही कठिन कार्य है। राग-द्वेष की कालिमा को तप की अग्नि में नष्ट कर आत्मा शुद्धता पा जाती है।
अक्षय तृतीया तपस्या का ही एक रूप है। भगवान ऋषभदेव की तपः साधना का अनुकरण करने की दृष्टि से आज भी बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष संत सती व भाई-बहिनों के द्वारा तपःसाधना की जाती है। उनके द्वारा की जाने वाली तपःसाधना को वर्षीतप के रूप में माना जाता है। वर्षीतप में आज की स्थिति में एक दिन उपवास व एक दिन पारणे का क्रम रहता है। आज जैन धर्म के चारो फिरकाओ में वर्षीतप के पारणे कार्यक्रम का आयोजन किया गया है।स्थानकवासी जैन संघ के आचार्य शिवमुनि म सा के सानिध्य में सूरत कड़ोदरा संघरिला स्थित वर्षीतप का पारणा का आयोजन किया गया है।गोगुन्दा के सायरा क्षेत्र में उमरना में जिनेन्द्र मुनि म सा और प्रवीण मुनि मसा के सानिध्य में वर्षीतप पारणा कार्यक्रम का आयोजन है।तेरापंथ समाज के संतवृन्द के सानिध्य में वर्षीतप कार्यक्रम किया गया है।यह विशिष्ट जैन धर्म की परम्परा में यह एक चरम है, एक विशिष्टता है। कई लोग वर्षीतप की एकदम भूल भरा दृष्टिकोण है। हमारे यहाँ पर सामान्य से सामन्य तप का भी अनुमोदन किया जाता है तो फिर वर्षीतप की साधना को अपने ही द्वारा गड़े हुए कुतकों के आधार पर नकारना अनुपयुक्त है।निन्दा और आलोचनाओं का क्या है? इसमें कहाँ जोर लगता है? किसी भी श्रेष्ठता की या श्रेष्ठता से जुड़े हुए जनों की निन्दा कर लेना सबसे सरल कार्य है। कठिन कार्य तो श्रेष्ठजनों का अभिनन्दन और अनुमोदन करना है। जो वर्षीतप को गलत बताते हैं। वे स्वयं सोचें कि तप की कोई भी प्रक्रिया हो वह निंदनीय नहीं अपितु अभिनंदनीय, अनुमोदनीय और अनुकरणीय है। एक समय की चाय का परित्याग करना भी कई लोगों के लिए मुश्किल होता है। ऐसे में साल भर तक एक दिन उपवास और एक दिन पारणक कोई सामान्य बात नहीं है। हमें तप का अनुमोदन करना चाहिए। तप का अनुमोदन भी एक तरह का तप है।
*भगवान ऋषभदेव का पारणक*
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के एक वर्ष की सुदीर्घ तपः साधना का पारणक अक्षय तृतीया को हुआ। यह अक्षय तृतीया हम सभी को प्रभु ऋषभदेव की पावन याद दिलाती है। भगवान ऋषभदेव के सम्पूर्ण मानव जाति पर अनंत उपकार हैं। असि, मसि और कृषि का संदेश देकर उन्होंने जन-जीवन को जीवन जीने की एक विशेष दृष्टि प्रदान की। भगवान ऋषभदेव जब दीक्षित हुए, उस समय मुनि जीवन की जो समाचारी है, उससे आम जन मानस लगभग अपरिचित था। इस अपरिचय के कारण प्रभु को लम्बे समय तक निर्दोष आहार प्राप्त नहीं हो सका।
प्रभु ऋषभदेव जब आहार आदि की गवेषणा की दृष्टि से निकलते तो लोग उन्हें अपने घर-आँगन की ओर आते देखकर बड़ी भक्ति भावना का परिचय देते। लोग मन में सोचते आज हमारे विशेष सौभाग्य का विषय है कि स्वयं प्रभु ऋषभदेव हमारे यहाँ पधार रहे हैं। प्रभु का हमारे घर-आँगन में हुआ है तो हमें उनके चरणों में कुछ विशिष्ट भेंट अर्पित करके उनका स्वागत करना चाहिए। लोग उनके चरणों में विपुल धनराशि एवं कई
पर्व के रूप में यह तिथि अलौकिक दिव्यता से जुड़ गई, इसे अक्षय तृतीया के नाम से संबोधा गया । प्रभु ऋषभदेव ने तप को सहज साधना रूप में प्रतिस्थापित किया, तभी से तप जैन दर्शन का हार्द माने जाने लगा है। तप को मोक्ष मार्ग के चार भेदों के अंतर्गत परिगणित किया है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। इसी तरह आत्मोत्कर्ष के जो चार कारण- दान, शील, तप और भाव माने गए हैं, उनमें दान को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

अंत में अक्षय तृतीया के इस पावन प्रसंग पर मैं असीम आस्था के साथ प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के चरणों में वन्दन नमन पूर्वक उन सभी तपस्वी जनों के तप का अनुमोदन करता हूँ, जिन्होंने वर्षीतप किया है। उनकी भव्य-भावनाएँ भी निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं। तप और दान की यह पवित्र प्रक्रिया निरन्तर चलती रहे एवं प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का उत्तरोत्तर विकास संपादित करें

                        *कांतिलाल मांडोत*

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