धार्मिकता की कसौटी नैतिकता
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धार्मिकता की कसौटी नैतिकता
धर्म जीवन के अभ्युदय का एक साधन है।धर्म व्यक्ति को अपने आप से जोड़ता है।जो अपने आप से जुडा है,वह जीवन मे पुर्णतः प्रमाणिकता एवं नीति सम्मतता के साथ चलता है।मनसा, वाचा, कर्मणा उसके व्यवहार प्रत्येक के लिए सुखद होता है।धार्मिक व्यक्ति क्रूर अथवा स्वार्थों का संपोषक नही होता।जो व्यक्ति अपनी निजी स्वार्थों की संपूर्ति के लिए शोषक बनकर किसी के लिए घातक बन जाता है,वह धार्मिक होने की कसौटी पर खरा नही उतरता है।।मन्दिर स्थानक उपाश्रय या अपने अपने मान्य धर्मस्थानों में जाकर धर्म के नाम पर स्थूल रूप से दो चार विधि निषेधों को अपनाकर अपने आपको धार्मिक समझ लेना अधूरा दृष्टिकोण है।वास्तव में जिसके जीवन मे धर्म समाविष्ट हो गया है,वह एक विशिष्ट व्यक्तित्व का धारक होता है।उसकी प्रत्येक प्रवृति से लोकमंगल पुष्ट होता है।वह न स्वयं विकृतियों से स्वयं जुड़ता है और न किसी अन्य को ही जुड़ने की प्रेरणा देता है।उसका अनुमोदन सदैव सतप्रवृतियो के लिए होता है।धार्मिक व्यक्ति की पहचान है कि उसके जीवन मे नैतिकता का समावेश हो,उसका आध्यात्मिक पहलू ज्योतिमर्य बने।इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के उसके अपने जीवन का नैतिक पहलू ज्योतिमर्य हो।जीवन मे नीति का पक्ष सशक्त बने बिना धर्म साधना के क्षेत्र में प्रगति संभव नही है।श्रावक के लिए यह निर्देश है कि उसका व्यवसायिक परिवेश नीति से संपन्न होना चाहिए।यह ठीक है कि जीवन मे अर्थ की आवश्यकता होती है।बिना पैसे के किसी का कार्य चलता नही है पर एकान्ततः अनीति में डूबकर अर्थोपार्जन करना किसी की दृष्टि से उपयुक्त नही है।अनीति से उपार्जित अर्थ बहुत लम्बे समय तक नही टिकता।वह निश्चित रूप से जाता है एवं व्यक्ति को पूर्णरूप से बर्बाद कर देता है।जितना आवश्यक है उतना प्रत्येक के लिए करना पड़ता है एवं आटे में नमक जितना लाभ प्रत्येक कमाता है।पर लोभवश जरूरत से ज्यादा उपार्जन के लिए अनीति का आश्रय लेकर दौड़ भाग करना ,किसी का गला काटना स्पष्ट रूप से अनैतिकता है।व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी आवश्यकताए कम करे एवं अपना व्यवसाय प्रमाणिकता से करे।
धर्म को लज्जित न करे
धर्मस्थान में जाकर व्यक्ति धार्मिकता का प्रदर्शन तो करता रहे,पर व्यवहारिक क्षेत्र में अप्रामाणिकता का पुष्ट करे तो इससे धर्म का पावन क्षेत्र बदनाम एवं लज्जित होता है।धर्म कभी भी विकृतियों का पोषण नही करता।कोई भी यदि विकृतियों को प्रश्नय देता है तो वह उसका स्वयं का दोष है।धर्म का नही,पर ऐसे तथाकथित धार्मिको के कारण ही आज धर्म बदनाम हैं।इससे अनेक व्यक्तियों की अनास्था पैदा होती है।ऐसे तथाकथित धार्मिक धर्म के आवरण ओढ़कर अपना उल्लू सीधा करते है।
धर्म खराब सोच के व्यक्तियों के पास पहुंचता है तो वह कलंकित हो जाता है।दूध मीठा होता है,दूध की मिठास है।उसमें सुई की नोंक भर भी संशय नही है,पर उसे कड़वी तुम्बी में रखा जाएगा तो खराब होगा ही।धर्म तो खालिस दूध है।पर स्वार्थी मन की कड़वी तुम्बी में यदि उसे रखा गया तो कटुता आये बिना नही रहेगी।हम धर्म स्थल में जाए या नही जाए।तीर्थयात्रा करे या न करें, इससे कोई फर्क नही पड़ता है।जीवन के व्यवहार में क्षण क्षण धर्म की पवित्र छवि प्रतिबिंबित होनी चाहिए।दया धर्म का जयघोष करते रहे और दुकान मंडी में पहुंचते ही यदि किसीको छलने के लिए निर्मम एवम अप्रामाणिक बनकर स्वयं को प्रस्तुत करने लगे तो इस तरह के धर्म का कोई औचित्य नही है।
हमारी कथनी और करनी में एकरूपता अपेक्षित है।हम सत्य की,धर्म की और नीति की केवल बाते ही न करे,अपितु उसे जीवन के दैनिक व्यवहार में जिये भी।धर्म स्थान हो,घर हो या दुकान हो प्रत्येक स्थान पर प्रमाणिकता बनी रहे।जिसके जीवन मे प्रामाणिकता है वही सच्चे अर्थों में धार्मिक है और उसे कही भी किसी प्रकार का किसी के द्वारा भय नही होता।वह प्रत्येक स्थिति में अभय की अनुभूति करता है।
कांतिलाल मांडोत
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