पशु तुल्य मानव को हजारो लाखो मनुष्यों का पूज्य बनाने और अस्तित्व का बोध कराने वाले गुरु सच्चे पथप्रदर्शक*
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गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा पर विशेष
*पशु तुल्य मानव को हजारो लाखो मनुष्यों का पूज्य बनाने और अस्तित्व का बोध कराने वाले गुरु सच्चे पथप्रदर्शक*
संस्कृति जिसे वैदिक संस्कृति के नाम से जानते है,वह भारतीय संस्कृति की मुख्यधारा है।श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व जैन संस्कृति करती है तो हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व वैदिक संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति करती है।आज गुरु पूर्णिमा का दिन है।आज गुरुजनों की पूजा,वंदना और उपासना की जाएगी।ज्ञानदाता गुरुओं का सम्मान किया जाएगा।आज का दिन व्यास पूर्णिमा के नाम से ही जाना जाता है।सुमेरु भी कण को नमस्कार करता है।समुद्र भी बून्द को प्रणाम करता है,सूर्य भी किरणों की वंदना करता है।क्योंकि गुरु हमारा उपकारी है।गुरु गोविंद दोनों ही वंदनीय है।गुरु व भगवान के बारे में एक बात कही जाती है कि अगर भगवान रूठते है तो गुरु मना देते है।लेकिन यदि गुरु ही रूठ जाये तो शिष्य का कही ठिकाना नही ।हरि रूठे गुरु ठौर है,गुरु रूठे नही ठौर।
जैन वैदिक दोनों परम्पराओ में गुरु महिमा सर्वोपरि है।वैदिक परंपरा में तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो का स्वरूप एक गुरु में ही समाहित है।यहा तक कि ब्रह्मा ही गुरु ही है।गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया गया है-गुरु मेरी पूजा,गुरु गोविंदु, गुरु मेरा पार ब्रह्म गुरु भगवन्तु।वैदिक परंपरा में ब्रह्मा,विष्णु और महेश त्रिदेव के बोधकर्ता गुरु ही है।ब्रह्मा,विष्णु और महेश सुने पढ़े जाते है,किन्तु माता पिता गुरु के रूप में आप और हम को इनकी प्रत्यक्ष उपलब्धि अपने जीवन काल मे होती रहेगी।नीतिकारों में गुरु को व्यवहारिक दृष्टि से कुम्हार,माली और शिल्पकार की उपमा दी है।
गुरु एक दर्पण है।जिस प्रकार मनुष्य अपना रंग रूप निहारने के लिए दर्पण में देखता है,दर्पण उसकी सुंदरता और कुरूपता का बोध कराता है,उसी प्रकार गुरु भी शिष्य को उसके अस्तित्व का बोध कराते है और उसे उसी प्रकार अस्तित्व का बोध कराते है उसे उसके भीतरी स्वरूप का बोध कराते है।गुरु संसार का वह रहष्य जानता है,जिसे जानकर जीवन मे जागृति और शक्ति का संचार होता है।जीवन की उलझी समस्याओं को सुलझाना, साधना के विघ्नों का निराकरण करना गुरु ही जानता है।गुरु शिष्य को देता ही रहता है।गुरु एक औघड़दानी है।जैसे एक दिया अपनी ज्योति के स्पर्श से हजारो हजार दियो को प्रकाशमान कर देता है,वैसे ही गुरु शिष्य के भीतर अपनी संचित ज्ञान संपदा ,आध्यात्मिक संपदा ओज तेज संक्रमित कर शिष्य के व्यक्तित्व को दिव्यता और श्रेष्ठता प्रदान करता है।
भारतीय संस्कृति त्रिकमयी है।जैसे सत्य,रज तम तीन गुण।तीन लोक,तीन देव-ब्रह्मा,विष्णु और महेश।
ब्रह्मा जन्म देने वाली सृष्टिकर्ता है तो जन्म देने वाली जननी या माता साकार ब्रह्मा है।विष्णु पालनकर्ता है तो पिता धनोपार्जन और लाड़ प्यार से हमारा पालन करते है तो वे जीते जागते विष्णु है।महेश संहारक है तो गुरु या शिक्षक हमारे अज्ञान कषाय दुर्गुणों का संहार करने के कारण महेश है।त्रिदेवों में गुरु समाहित है।क्योंकि हर बालक की पहली माता,दूसरे गुरु पिता और तीसरे गुरु कालचार्य शिक्षक तथा आध्यात्मिक गुरु संत है।कुम्हार माटी के लोंदे को एक सुंदर घड़े का आकार प्रदान करता है।उसे इतना महत्वपूर्ण बना देता है कि वह कुल्वधुओं के सिर पर शोभायमान होता है।माली नन्हे नन्हे बीजो को खाद पानी देकर अंकुरित करता है।फूलों का हार बना देता है जो हार देवताओं के गले मे पहनाया जाता है।शिल्पकार अनगढ़ पत्थर को तराश कर ,सुंदर कलापूर्ण और भव्य मूर्ति का आकार देता है।रस्ते में पड़ा ठोकरे खाने वाला पत्थर जन जन का वंदनीय भगवान बन जाता है।किंतु गुरु की भूमिका इससे भी अधिक है।वे पशु तुल्य मानव को हजारो लाखो मनुष्यो का पूज्य बना देते है।
*कांतिलाल मांडोत*
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