तप मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम है
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तप मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम है*
अक्षय तृतीया अखंडता का प्रतीक*
भारत की संस्कृति पर्व प्रधान है।इसलिए यहाँ कहा जाता है -सात वार तेरह त्यौहार।सप्ताह में वार सात होते है,परन्तु इसमें त्यौहार तेरह आ जाते है।तृतीया को आखातीज के रूप में माना जाता है।तृतीया आज तक खण्डित नही हुई।अक्षय तृतीया अखंडता का प्रतीक है।अखंडता की शक्ति महान है।विभक्त और विभाजित होकर जीना वस्तुतः कोई जीना नही है।इस अक्षय तृतीया के साथ भगवान ऋषभ का गहरा संबंध है।भगवान ऋषभदेव की सुदीर्ध तप साधना का पारणक इसी दिन संपन्न हुआ।तप जीवन की ऐसी दिव्यता है,जो मनुष्य को उत्सव प्रदान करती है।ऊंचाइयों की और बढ़ता मनुष्य को प्रिय है।तप मनुष्य के कर्मो की निर्जरा करता है,उसे विकारों के परे करता है।तप के माध्यम से अध्यात्म की उच्चतम ऊंचाइयों का स्पर्श किया जाता है।
*तप धर्ममय बनाता है*
तप ही उपक्रम है,जो जीवन को धर्ममय बनाता है।जिसके जीवन में धर्म होता है,वह जीवन मे सबकुक पा लेता है।धर्म विहिन जीवन एक अभिशाप समान है।तप मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम है।अक्षय तृतीया में दान और तप की भावना से जुड़ी है।एसलिए यह आध्यात्मिक भावना या संस्कार जगाने वाला पर्व है।यह सांस्कृतिक त्यौहार भी है।
भारत के गांवो में आज भी यह विश्वास है कि अक्षय तृतीया का दिन बिना पूछा मुहूर्त है।अक्षय तृतीया के दिन जो काम किया जाता है,वह शुभ और चिरस्थायी होता है।अक्षय होता है।अक्षय तृतीया के साथ प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का गहरा संबंध है।भगवान ऋषभदेव की सुदीर्ध तप साधना का पारणक इसी दिन हुआ था।तप जीवन की दिव्यता है।जैन परम्परा के साथ अक्षय तृतीया की अत्यंत प्रेरणादायी घटना जुड़ी है।भगवान आदिनाथ का पारणा।एक वर्ष के उग्र तप का अक्षय तृतीया के ही दिन श्रेयांस कुमार ने इक्षु रस का दान देकर भगवान को पारणा कराया इसलिए इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा गया है।तप आत्मशुद्धि का स्वरूप है,पुरुषार्थ है।तप की महिमा अचिंत्य अनिवर्चनीय है।तपस्वी के चरणों मे देवता भी वंदन अभिनंदन करते है।तप से सारी ऋद्धि और सिद्धियां सुलभ है।तप साधना आत्मबल के बिना संभव नही है।तप की अग्नि में स्वयं को तपाना बहुत ही कठिन कार्य है।राग द्वेष की कालिमा को तप की अग्नि में नष्ट कर आत्मा शुद्धता पा जाती है।अक्षय तृतीया तपस्या का ही एक रूप है।अक्षय तृतीया का यह ऐतिहासिक पर्व संसार मे तप की महिमा का प्रवर्तक होने के साथ ही दान परम्परा का प्रवाह प्रवर्तित करने वाला है।तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा।
तप का अनुमोदन भी तप है
भगवान ऋषभदेव की तप साधना का अनुकरण करने की दृष्टि से आज भी बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष संत सती व भाई बहिनों के द्वारा तप साधना की जाती है।उनके द्वारा की जाने वाली तप आराधना को वर्षीतप के रूप में माना जाता है।वर्षीतप में आज की स्थिति में एक दिन उपवास व एक दिन पारणे का क्रम रहता है।तप की परंपरा में यह एक चरम है,एक विशिष्टता है।कई लोग ,वर्षीतप की जो परम्परा आज चल रही है।उसे नकारते है,गलत बताते है,पर यह एकदम भूल भरा दृष्टिकोण है।हमारे यहाँ सामान्य से सामान्य तप का भी अनुमोदन किया जाता है तो फिर वर्षीतप की साधना को अपने ही द्वारा गढ़े हुए कुतर्को के आधार पर नकारना अनुपयुक्त है।
वैशाख शुक्ल तृतीया को इस दान धर्म की प्रवृति हुई।इसलिए यह तृतीया अक्षय बन गई।इस दान धर्म के प्रथम प्रवर्तक थे श्रेयांस कुमार।श्रेयांस कुमार का यह उपकार है कि उन्होंने जाति स्मरण ज्ञान से श्रमणों को भिक्षा देने की जो निर्दोष विधि का ज्ञान प्राप्त किया।इसमें जनता को परिचित कराया।लोगो को बचाया भगवान तो कंचन कामिनी के त्यागी है,फिर भी तुम्हारे यह भेंट सौगात कैसे स्वीकारेंगे?उन्हें तो उदर पूर्ति के लिए शुद्ध निर्दोष आहार की आवश्यकता है।प्रभु ऋषभदेव महान थे।उनके दिया गया दान भी महान था।तब से लेकर अब तक यह दान की पवित्र परम्परा अक्षुण्ण रूप से चल रही है।तप और दान की यह पवित्र प्रक्रिया निरन्तर चलती रहे एवं प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का उत्तरोत्तर विकास संपादित करें।
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कांतिलाल मांडोत*
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