जीवन को परोपकार की सुरभि से सुवासित कीजिये
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जीवन को परोपकार की सुरभि से सुवासित कीजिये
एक जीवन अपने आप तक सीमित रहता है और इसमें दिन रात अपने ही स्वार्थों की पूर्ति के लिए भाग दौड़ रहती है और अपने ही पेट पेटी तथा परिवार की सोच के अतिरिक्त व्यक्ति के पास और कुछ भी विशिष्ट नही होता।उसका पेट और परिवार ही उसकी दृष्टि से सब कुछ होता है।अपनी पेटी को भरने के लिए वह कुछ भी अकरणीय कार्य करने में संकोच नही करता ।परमार्थ शब्द उसकी डिक्शनरी में ढूंढने से नही मिलता है।ऐसा व्यक्ति पूरी तरह का स्वार्थ परायण होता है।अपना पेट भरने के बाद कोई भी जिये या मरे,ऐसे खुदगर्ज व्यक्ति का अन्य कोई प्रयोजन नही होता है।इसके विपरित जीवन का दूसरा पहलू जीवन को पुष्ट करने वाला होता है।ऐसे व्यक्ति भी सोच पेट पेटी और परिवार से आगे बढ़कर परमार्थ से भरी हुई होती है।उसकी चिंता और चिंतन का विषय सम्पूर्ण पीड़ित मानवता होती है।सभी का सुख स्वयं का सुख और सभी का सूखऔर सभी का दुख उसके हिसाब से स्वयं का दुःख होता है।सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय उससे जो भी बन पड़ता है।उसे वह आंतरिक प्रसन्ता के साथ संपादित करता है।किसी के जीवन मे अभ्युदय के लिए वह मनसा वाचा कर्मणा अपने आप को न्योछावर करने प्रसन्नता की अनुभूति करता है।
अपने स्वार्थों का रोना तो हरकोई रोता है।लेकिन जो आंसू किसी पीड़ित की पीड़ा को दूर करने के लिए आंखों से छलकता है।उसी का महत्व है।
उपवन में अनेक फूल खिलते है और मुरझा जाते है लेकिन महत्व तो उसी फूल का है ,जिसमे सुवास है।वस्तुतः जीवन भी वही सार्थक है,जिसमे परोपकार की सुवास है।जीवन को परोपकार की सुरभि से सुवासित कीजिये।निर्गन्ध ,निष्प्राण जीवन की क्या उपयोगिता है?धरती पर भार बनकर जीना कोई जिना नही है।जीना है तो शान से जीना सीखो।शान से जीवन वही जीता है जो परोपकार को पुष्ट करता है।जीवन क्षणभंगुर है।क्षण क्षण यह विनाश की और अग्रसर है।जीवन का दीप न बुझे ,उससे पहले जो कुछ भी अच्छा करना है,उसे बिना किसी विलम्ब के कर लो।क्षमता होने के बावजूद जिस व्यक्ति ने परोपकार के क्षेत्र में यदि अपना भी एक कदम नही बढ़ाया है तो वह पैर होते हुए भी पंगु है।मानव होकर अपनी जिंदगी में किसी की रक्षा नही की,उससे वह बबूल का कांटा ही श्रेष्ठ है,जिसकी बाढ़ से खेत की रक्षा तो की जा सकती है।जो किसी के काम आता है।उसी का जीवन धन्य है।अपने अपने स्वार्थों की रोटियां तो सेंकने वाले बहुत है,पर उनका क्या है।स्वार्थ संसार मे थोड़ा बहुत सभी को होता है लेकिन स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी समावेश हो तो वह स्वार्थ भी अखरता नही है।जैसे आटे में परमार्थ का चुटकीभर नमक गिर जाने के बाद स्वार्थ की रोटी भी स्वादिष्ट बन जाती है।परोपकार का अर्थ केवल किसी दूसरे का उपकार करना ही नही है,अपितु हमारा स्वयं का भी उपकार है।
कान्तिलाल मांडोत
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